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सम्पादकीय "अपभ्रंश को आधुनिक भारतीय आर्य-भाषाओं की जननी होने का श्रेय प्राप्त है। अपभ्रंश की कुक्षि से उत्पन्न होने के कारण हिन्दी का उससे अत्यन्त आन्तरिक और गहरा सम्बन्ध है। अतः राष्ट्रभाषा हिन्दी की मूल प्रकृति और प्रवृत्ति से परिचित होने के लिए अपभ्रंश भाषा और साहित्य के अध्ययन-अध्यापन की अनिवार्यता सुधी अध्येताओं और अनुसंधित्सुओं के लिए हमेशा बनी रहेगी।"
"अपभ्रंश का कवि अपने समय और समाज की प्रतिगामी शक्तियों को पहचानते हुए गतिशील प्रक्रिया को शक्ति और सामर्थ्य देता रहा है। सामाजिक धरातल पर सर्वोत्तम की स्थापना का पूरा प्रयास करता रहा है। सांस्कृतिक प्रयोजन में देवचरित के स्थान पर शलाका पुरुषों के चरित, सामन्ती जीवन की जगह लोकजीवन की उपस्थिति और दार्शनिक परिवेश में मानवतावादी दृष्टिकोण को रेखांकित करता रहा है।"
"अपभ्रंश का साहित्य चाहे जैन हो या सिद्ध अथवा इहलौकिक, सर्वत्र उपर्युक्त सामाजिक भावना से संचरित-सम्प्रेषित हुआ है। उसका साहित्य समाज के हित के लिए समर्पित है, उसका त्याग समाज-सापेक्ष है। उसके साहित्य का समाजशास्त्र लोकहित की भावना से ओतप्रोत है।"
"अपभ्रंश के कवि का समाजशास्त्र लौकिक धरातल पर सुदृढ़ है। तथाकथित जो मूल्य हैं उनकी तुलना में वे जीवन-मूल्य कहीं अधिक सार्थक हैं जो सेवा, त्याग, समर्पण में अपने सिर को नवाते हैं, उसका पालन करते हों - वह चाहे माँ हो या मातृभूमि।" ___ "अपभ्रंश कवियों की भाषा की प्रतिबद्धता है - साधारण लोगों तक अपनी रचना को पहुँचाना। भले ही इसके लिए उन्हें व्याकरण, अलंकारशास्त्र और पिंगलशास्त्र छोड़ना पड़े। इस महान उद्देश्य में अपभ्रंश कवियों का आत्मविश्वास देखते ही बनता है। लोक-सुख में ही अपभ्रंश कवियों का आत्म-सुख है। यही उनका समाज है, यही उनकी संस्कृति। उनका पूर्ण विश्वास था कि इसके बिना सामाजिक-सांस्कृतिक रूपान्तरण किया ही नहीं जा सकता। इसके लिए वे अपने से बाहर निकलकर वृहत्तर अनुभव-संसार में गये। समाज में गाई जानेवाली प्रचलित लोकधुनों को काव्य का स्वरूप दिया। संधि, कुलक, चउपई, चौपाई, आराधना, रास, चाँचर, फाग, स्तुति, स्तोत्र, कथा, चरित, पुराण आदि काव्यरूपों में सामाजिक जीवन और जगत की अनेक भावनाओं, विचार-सरणियों, चिन्तन की चिन्तामणियों,सहज साधना एवं सिद्धि पद्धतियों, धार्मिक आदर्शों, सास्कृतिक सरणियों को सशक्त एवं रागरंजित वाणी प्रदान की।
"प्राकृत-अपभ्रंश कथा साहित्य की एक लम्बी परम्परा है जिसका प्रारंभ आगम काल से देखा जा सकता है। उसमें उपदेशात्मकता और आध्यात्मिकता की पृष्ठभूमि में आचार्यों ने लोकाख्यानों का भरपूर उपयोग किया है।"
(vi)