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अपभ्रंश भारती
कह भीखा सब मौज साहब की मौजी आयु कहावत ।
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में इन्हें ही ऋणात्मक तथा घनात्मक तत्त्व कह सकते हैं । विशेषता इतनी ही है कि 'आगम' में इन्हें चिन्मय कहा गया है। नैगमिक दर्शनों (न्याय, वैशेषिक, सांख्य, पांतजल, पूर्वमीमांसा तथा उत्तरमीमांसा) में कोई भी 'शक्ति' की 'चिन्मयरूप' में कल्पना नहीं करता। कुछ तो ऐसे हैं जो 'शक्ति' तत्त्व ही नहीं मानते, कुछ मानते भी हैं तो जड़। आगम (अद्वयवादी) 'शक्ति' को 'चिन्तक' कहते हैं और 'शिव' की अभिन्न क्षमता के रूप में स्वीकार करते हैं । अद्वयस्थ वही द्वयात्मकता आत्म-लीला के निमित्त विधा-विभक्त होकर परस्पर व्यवहित हो जाती है - पृथक् हो जाती है। इस व्यवधान अथवा पार्थक्य के कारण समस्त सृष्टि अस्थिर, बेचैन, गतिमय तथा खिन्न है। इस स्थिति से उबरने के लिए इस व्यवधान को समाप्त करना पड़ता है, शक्ति से शिव का मिलन या सामरस्य अपेक्षित होता है ।
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निर्गुनिए संत पहले साधक हैं, इसके बाद और कुछ और इनकी साधना है - सुरत शब्द योग। यह सुरत या सुरति और कुछ नहीं, उक्त 'शक्ति' ही है जो आदिम मिलन या पुगनद्वावस्था को स्त्रलात्मक बीजरूप में सभी बद्धात्माओं में पड़ी हुई है। प्रत्येक व्यक्ति में यही प्रसुप्त चिन्मयी शक्ति 'कुण्डलिनी' कही जाती है। अथर्ववेद में यही 'उच्छिष्ट' है, पुराणों में यही 'शेषनाग ' स्थूलत धार्मिकात्मक परिणति के बाद कुण्डलित 'शक्ति' विश्व और व्यष्टि उभयत्र मूलाधार में स्थित है।
सुरति सुहागिनी उलटि कै मिली सबद में जाय । मिली सबद में जाय कन्त को वस में कीन्हा । चलै न सिव कै जोर जाय जब सक्ती लीन्हा । फिर सक्ती भी ना रहै, सक्ति से सीव कहाई । अपने मन कै फेर और ना दूजा कोई । सक्ती शिव है एक नाम कहवे को दोई । पलटू सक्ती सीव का भेद कहा अलगाय । सुरति सुहागिनि उलटि कै मिली सबद में जाय ।
भीखा साहब आगमिकों की शक्तिमान (शिव) और शक्ति की भाँति मौजी और मौज की बात करते हैं। एक अन्य संत ने शिव तथा मौज को स्पष्ट ही शक्ति कहा है
पलटूदास की इन पंक्तियों के साक्ष्य पर उक्त स्थापना कि आगमिक दृष्टि ही संतों की दृष्टि है - सिद्ध हो जाती है।
आगम की भाँति संतजन भी वहिर्याग की अपेक्षा अंतर्याग की ही महत्ता स्वीकार करते हैं और इस अंतर्याग की कार्यान्विति गुरु के निर्देश में ही संभव है । आगमों की भाँति संतजन मानते हैं कि गुरु की उपलब्धि पारमेश्वर अनुग्रह से ही संभव है। यह गुप्त ही है जिसकी उपलब्धि होने पर 'साधना' (अंतर्याग) संभव है। यह तो ऊपर कहा ही जा चुका है कि द्वयात्मक अद्वय सत्ता विश्वात्मक भी है और विश्वातीत भी। विश्वात्मक रूप में उसके अवरोहण की एक विशिष्ट प्रक्रिया है और उसी प्रकार आरोहण की भी । विचारपक्ष से जहाँ आगमों ने द्वयात्मक अद्वय तत्त्व