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अपभ्रंश भारती - 8
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युद्ध-यात्रा के समय या युद्ध-भूमि में बजाये जानेवाले रणवाद्य का भी वर्णन अपभ्रंश साहित्य में प्रचुर मात्रा में पाया जाता है। तत्कालीन बाजों में भेरी, मृदंग, पटह, तूर्य, नीसान, काहल, ढोल, तबल, रणतूरा आदि का उल्लेख पाया जाता है -
पैरि तुरंगम भेलिपार गण्डक का पाणी । पर वल भंजन गरुअ महमद्द मगानी ॥ अह असलाने फौदे-फौदे निजसेना सज्जिय ।
भेरी काहल ढोल तवल रण तूरा वज्जिय ॥5 उपर्युक्त विवेचन एवं विश्लेषण से स्पष्ट हो जाता है कि अपभ्रंश के कवि जागरूक एवं सूक्ष्म-द्रष्टा थे। वे जहाँ भारतीय वस्तु-वर्णन की शैली को पूर्णतः हृदयंगम किये थे, वहीं पर तुर्की जीवन-प्रणाली एवं वस्तु-वर्णन से भी परिचित थे। वे राजदरबारों की पद्धति, भवन-निर्माण कला, उद्यान, युद्ध, अस्त्र-शस्त्र आदि से पूर्णतः परिचित थे। अपभ्रंश साहित्य में जहाँ श्रृंगार के विविध रूपों का सूक्ष्म और मंजुल-मनोहर चित्रण मिलता है, वहीं प्रशस्ति-काव्यों का चमत्कारपूर्ण, टंकारभरी ओजस्वी चित्र भी देखने को मिलता है। इन्हीं कारणों से अपभ्रंशसाहित्य को मध्यकालीन भारतीय जीवन का सांस्कृतिक दर्पण कहा जाता है।
1. शब्दार्थों सहितौ काव्यं गद्यं पद्यं च तद् द्विधा । संस्कृतं प्राकृतं चान्यदपभ्रंश इति त्रिधा ॥
- काव्यालंकार - 1.16, 28 2. आभीरादिगिरः काव्येष्वपभ्रंश इति स्मृताः । शास्त्रेषु संस्कृतादन्यदपभ्रंशतयोदितम् ॥
- काव्यादर्श - 1.36 3. अपभ्रंश साहित्य, डॉ. हरिवंश कोछड़, पृ. 3। 4. ता किं अवहंसं होहिइ ? हूँ! तं पि णो जेण तं सक्कयपाय-उभय सुद्धासुद्ध पयसम तरंग
रंगंत वग्गिरं णव पाउस जलय पवाह पूरपव्वालिय गिरिणइ सरिसं सम विसमं पणय कुविय पियपणइणी समुल्लाव सरिसं मणोहरं।
- अपभ्रंश काव्यत्रयी, सं. लालचन्द भगवानदास गाँधी, पृ. 97-98। 5. सवक्कउ पायउ पुण अवहंसउ वित्तउ उप्पाइउ सपसंस।
- महापुराण, सं. पी. एल. वैद्य, 5.18.6। 6. अपभ्रंश साहित्य, डॉ. हरिवंश कोछड़, पृ. 5। 7. वही, पृ. 6। । 8. काव्यमीमांसा, राजशेखर, गायकवाड़ आरिएण्टल सिरीज, संख्या 1, अध्याय-13। 9. कीर्तिलता और अवहट्ट भाषा, डॉ. शिवप्रसाद सिंह, पृ. 212। 10. सम आस्पेक्ट्स ऑव रिलिजन एण्ड सोसाइटी इन इण्डिया ड्यूरिंग द थर्टिएथ सैंचुरी,
डॉ. ख़लीक अहमद निज़ामी, पृ. 85।