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अपभ्रंश भारती - 1
तान्हि वेश्यान्हि करो मुख सार मंडन्ते अलक तिलका पत्रावली खंडन्ते । दिव्याम्बर पिन्धन्ते, उभारि-उभारि केशपाश बंधन्ते सखि जन ॥ प्रेरन्ते, हँसि हेरन्ते। सआनी, लानुमी, पातरी, पतोहरी, तरुणी। तरट्टी, वन्ही, विअप्खणी परिहास पेषणी, सुन्दरी सार्थ ॥
जवे देखिअ, तवे मन करे तेसरा लागि तीनू उपेष्खिअ ॥1 अपभ्रंश साहित्य में वेश्या हाट के साथ ही तुर्क सौदागरों और खरीद-फरोख्त करनेवाले गुलामों आदि का भी सुन्दर वर्णन मिलता है। कीर्तिलता में अश्व-वर्णन में घोड़ों की जाति, शरीर-गठन, साज-सामान तथा उनकी विविध प्रकार की चालों का विशद वर्णन है -
कटक चांगरे चांगु। वांकुले वांकुले वअने । काचले-काचले नअने। अँटले-अँटले बाधा, तीखे तरले ॥ कांधा। जाहि करो पीढि आपु करो अहंकार सारिअ । पर्वत ओलाँघि पार क मारिअ। अखिल सेनि सत्तु करी ॥ कीर्तिकल्लोलिनी लाँघि भेलि पार. ताहि करो जल सम्पर्के चारह पाजे । तोषार सरली मुरुली कंडली, मुंडली
ना गति ॥ करन्ते भास कस, जनि पाय तल पवन देवता वस। पद्म करे ।
आकारे मुँह पाट जनि स्वामी करो यशश्चन्दन तिलक ललाट ॥" विद्यापति ने अश्व सेना के साथ-साथ हस्ति सेना का भी बड़ा सुन्दर वर्णन किया है -
अणवरत हाथि मयमत्त जाथि । भागन्ते गाछ चापन्ते काछ । तोरन्ते बोल मारन्ते घोल । संग्राम थेघ भूमट्टि मेघ ॥ अन्धार कूट दिग्विजय छूट । ससरीर गव्व देखन्ते भव्व ॥
चालन्ते काण पवव्वअ समाण ॥ सेना के चलने का भी पारंपरिक वर्णन मिलता है। सूर्य ने अपना प्रकाश संवृत कर लिया। आठों दिग्पालों को कष्ट हुआ। धरती पर धूल से अंधकार छा गया। प्रेयसी ने प्रिय को देखा कि सूर्य इस समय चन्द्रमा के समान कोमल-मंद कैसे लग रहा है ! जंगल, दुर्ग को दल ने तहसनहस कर दिया तथा पद-भार से पृथ्वी को खोद दिया। हरि और शंकर का शरीर एक में मिल गया। ब्रह्मा का हृदय डर से डगमगा गया -
जाषणे चलिअन सुरतान लेख परिसेष जान को। धरणि तेज सम्बरिअ अट्ठ दिगपाल कठ्ठ हो । धरणि धूल अन्धार, छोड्ड पेअसि पिअ हेरब । इन्द चन्द आभास कवन परि रहु समय पेल्लब ॥ कन्तार दुग्ग दल दमसि कहुँ खोणि खुन्द पअ भार भरे । हरिशंकर तनु एक्क रहु वम्भ हीअ डगमगिअ डरे ॥4