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________________ 36 अपभ्रंश भारती चाण्डाल के आँग लूर, वेश्यान्हि करो पयोधर । जती के हृदय चूर । घने सञ्चर घोल हाथं, बहुत ॥ वापुर चूरि जाथि । आवर्त विवर्त रोलहों नअर नहि नर समुद्र ओ ॥ 36 - नगरों में पत्थरों का फर्श बनाया जाता था। ऊपर गिरे पानी को दीवालों के भीतर से क्रमबद्ध बाहर गिराने की प्रणाली की तरफ भी विद्यापति ने संक्षेप में उपवन का भी वर्णन किया है ध्यान दिया था । इसी वर्णन क्रम में कवि पेष्खिअउ पट्टन चारु मेखल जञोन नीर पखारिआ । पासान कुट्टिम भीति भीतर चूह ऊपर ढारिआ ॥ पल्लविअ कुसुमिअ फलिअ उपवन चूअ चम्पक सोहिआ । मअरन्द पाण विमुद्ध महुअर सद्द मानस मोहिआ ॥ वकवार साकम बाँध पोखरि नीक नीक निकेतना । अति बहुत भाँति विवट्टबट्टहिं भुलेओ वड्डेओ चेतना ॥ सोपान तोरण यंत्र जोरण जाल गाओष खंडिया । धअ धवल हर घर सहस पेष्खिअ कनक कलसहि मंडिआ ॥ थल कमल पत्त पमान नेत्तहि मत्तकुंजर गामिनी । चौहट्ट वट्ट पलट्ठि हेरहिं सथ्थ सथ्थहिं कामिनी ॥ कप्पूर कुंकुम गंध चामर नअन कज्जल अंबरा । बेवहार मुल्लाह वणिक विक्कण कीनि आनहिं वब्बरा ॥ सम्मान दान विवाह उच्छव मीअ नाटक कव्वहीं । आतिथ्य विनय विवेक कौतुक समय पेल्लिअ सव्वहीं ॥37 - 8 वहुल वंभण वहुल काअथ । राजपुत्र कुल वहुल, वहुल जाति मिलि वइस चप्परि ॥ सबे सुअन सबे सधन, णअर राअ सबे नअर उप्परि । जं सबे मंदिर देहली धनि पेष्खिअ सानन्द ॥ तसु केरा मुख मण्डलहिं घरे-घरे उग्गिह चन्द ॥ ३8 विद्यापति द्वारा वर्णित नगर-योजना से तत्कालीन समाज-व्यवस्था पर भी प्रकाश पड़ता है । उस नगर में जहाँ रूपवती, युवती और चतुर वनियाइनें सैकड़ों सखियों के साथ गलियों को मंडित करती बैठी थीं वहीं पर बहुत से ब्राह्मण, कायस्थ, राजपूत आदि जातियों के लोग मिले-जुले बैठे हुए थे, सभी सज्जन, सभी धनवान मैथिल कवि विद्यापति का वेश्या - वर्णन बहुत ही सरस एवं विस्तृत है। उन हाटों में क हाट सबसे सुन्दर था और यह हाट वेश्या हाट था। इस वेश्या हाट का वर्णन करता हुआ कवि लिखता है - राजमार्ग के पास से चलने पर अनेक वेश्याओं के निवास दिखलायी पड़ते थे, जिनके निर्माण में विश्वकर्मा को भी बड़ा परिश्रम करना पड़ा होगा। उनके केश को धूपित करनेवाले अगरु के धुएँ की रेखा ध्रुवतारा से भी ऊपर जाती है । कोई-कोई यह भी शंका करते हैं कि उनके काजर से चाँद कलंकित लगता है। उनकी लज्जा कृत्रिम होती है, तारुण्य भ्रमपूर्ण । धन के लिए प्रेम करतीं, लोभ से विनय और सौभाग्य की कामना करतीं बिना स्वामी के ही सिन्दूर
SR No.521856
Book TitleApbhramsa Bharti 1996 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1996
Total Pages94
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size7 MB
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