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अपभ्रंश भारती - 8
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जहिं गोउलाई पउ विक्किरंति पुंडुच्छु दंड खंडई चरंति । जहिं वसह मुक्क ढेक्कारधीर जीहा विलिहिय णंदिणि सरीर ॥ जहिं मंथर गमणइं माहिसाई दहरमणुड्डाविय सारसाई । काहलियवंस रव रत्तियाउ वहुअउ घरकमिं गुत्तियाउ ॥ संकेय कुडुंगण पत्तियाउ जहिं झीणउ विरहिं तत्तियाउ । जहिं हालिरूब णिवद्ध चकृखुसीमावडुण मुअइ को विजकृखु ॥ जिम्मइ जहिं एवहि पवासिएहिं दहि कूरु खीरु घिउ देसी एहिं । पव पालियाइ जहिं बालियाइ पाणिउ भिंगार पणालियाइ॥ दितिए मोहिउ णिरु पहियविंदु चंगउ दक्खालिवि वयण चंदु । जहिं चउ पयाई तोसिय मणाइंधण्णइंचरंति ण हु पुणु तिणाई ॥
हि णयरि अस्थि जहिं पाणि पसारड़ मत्त हत्थि ॥२० मुनि कनकामर करकंड चरिउ में अंगदेश का वर्णन करते हुए कहते हैं - अंगदेश ऐसा सुन्दर है मानो पृथ्वीरूपी नारी ने दिव्य वेश धारण कर लिया हो। जहाँ सरोवरों में उगे हुए कमल पृथ्वी-मुख पर नयनों के समान प्रतीत हो रहे हैं। जहाँ कृषक बालाओं के सौन्दर्य से आकृष्ट हो दिव्य देहधारी यक्ष भी स्तंभित और गतिशून्य हो जाते हैं। जहाँ चरते हुए हरिणों को गान से मुग्ध करती हुई बालाएँ शाली क्षेत्रों की रक्षा कर रही हैं । जहाँ द्राक्षाफलों का उपभोग करते हुए पथिक मार्ग के श्रमजन्य दुःख को खो देते हैं। जहाँ मार्ग सरोवरों में खिले कमलों की पंक्ति शोभायमान हो रही है मानो हँसती हुई पृथ्वी शोभायमान हो रही हो -
छखण्डभूमि रयणहं णिहाणु रयणायरो व्व सोहायमाणु । एत्थत्थि रवण्णउ अंगदेसु महि महिलई णं किउ दिव्ववेसु ॥ जहिं सरवरि उग्गय पंकयाई णं धरणिवयणि णयणुल्लयाई। जहिं हालिणिरूवणिवद्धेणेह संचल्लहिँ जक्ख णं दिव्वदेह ॥ जहिं बालहिं रक्खिय सालिखेत्त मोहेविणु गीयएं हरिणखंत । जहिं दक्खई जिविदुहु मुयंति थल कमलहिं पंथिय सुहु सुयंति ॥
जहिं सारणिसलिलि सरोयपंति अइरेहइ मेइणि णं हसंति ॥ दिव्यदृष्टि धाहिल ने पउमसिरीचरिउ में मध्य देश का अलंकृत भाषा में वर्णन करते हुए * लिखा है -
इह भरहि अत्थि उज्जल सुवेसु सुपसिद्धउ नामि मज्झदेसु । तहिं तिन्नि वि हरि-कमलाउलाइँ कंतार-सरोवर राउलाइँ ॥ धम्मासत्त नरेसर मुणिवर स हु सुयसालि लोग गुणि दियवर । गामागर पुर नियर मणोहर विउल नीर गंभीर सरोवर ॥ उदलिय कमल संड उब्भासिय केयइ कुसुम गंध परिवासिय । वहुविह जण धण धन्न खाउलु गो महिस उल खाउल गोउलु ॥ भूसिउ धवल तुंग वरभवणेहि संकुल गाम सीम उच्छरणेहि । कोमल केलि भवण कय सोहिहि फलभर नामिय तुंग दुमोहिहि ॥