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________________ 32 अपभ्रंश भारती - 8 णिसिया असिधारइ सूइएसु, खरदंडु पउमणालें असेसु । कोस खउ पहिय ह णउ जणेसु, वंकत्तु उहवे कुंचिए ॥ जड़ उद्धारु वि परु वालएसु, अवियड्ढत्तणु गोवय णरेसु । खलु खलिहाणें अहवा खलेसु, पर दारगमणु जहिं मुणिवरे ॥ कव्वलसु णिरसत्तु विपत्थरेसु, जद्भुविकसाल थी पुरिसएसु । धम्मेसु वसुण पूयासुराउ, मणुऊहट्टइ दित्तंहं ण चाउ । माणे माणु सीहेसु कोहु, दीणेसु माय दुद्धेसु दोहु || सत्थेसु लोहु उं सज्जणेसु, पर हाणि चिंत्ते दुज्जण जसु । तुरगामिउ मउ णउं तिय समूहु, अइ चंचलु अडइहिं मयह जोहु । विवह हि दायारहिं वहुजणेहिं, जं सूहइ जण धण कण भरेहि ॥ 17 जसहरचरिउ में पुष्पदन्त ने यौधेय देश का वर्णन करते हुए लिखा है - यौधेय नाम का देश ऐसा है मानो पृथ्वी ने दिव्य वेश धारण किया हो। जहाँ जल ऐसे गतिशील है मानो कामिनियाँ लीला से गति कर रही हों। जहाँ उपवन कुसुमित और फलयुक्त हैं मानो पृथ्वी वधू ने नवयौवन धारण किया हो । जहाँ गौएँ और भैंसें सुख से बैठी हैं। जिनके धीरे-धीरे रोमन्थ करने से गंडस्थल हिल रहे हैं । जहाँ ईख के खेत रस से सुन्दर हैं और मानों हवा से नाच रहे हैं। जहाँ दानों के भार से झुके हुए पक्वशाली खड़े हैं। जहाँ शतदल कमल पत्तों और भ्रमरों से युक्त हैं। जहाँ तोतों की पंक्ति दानों को चुग रही है । जहाँ जंगल में मृगों के झुण्ड ग्वालों से गाये जाते गानों को प्रसन्न मन से सुन रहे हैं - जोहेयउ णामिं अत्थि देसु णं धरणिए धरियउ दिव्ववेसु । जहिं चलई जलाई सविब्भमाई णं कामिणिकुलई सविब्भमाई ॥ कुसुमिय फलियइं जहिं उववणाइं णं महि कामिणिणव जोव्वणाई । मंथर रोमंथण चलिय गंड जहिं सुहि णिसण्ण गोमहिसि संड ॥ जहिं उच्छुवणइं रस दंसिराई णं पवण वसेण पणच्चिराई । कणभर पणविय पिक्क सालि जहिं दीसइ सयदलु सदलु सालि ॥ जहिं कणिसु कीर रिंछोलि चुणइ गह वइ सुयाहि पडिवयणु भणइ । जहिं दिण्णु कण्णु वणि मयउलेण गोवाल गेय रंजिय मणेण ॥18 इसी प्रकार कवि ने राजपुर का भी बड़ा सरस वर्णन किया है। " पुष्पदन्त की सबसे बड़ी विशेषता है कि वह इन सब वर्णनों में मानव-जीवन की उपेक्षा नहीं करता । कवि की दृष्टि नगरों भोग-विलासमय जीवन की ही ओर नहीं रही, अपितु ग्रामवासियों के स्वाभाविक, सरल और मधुर जीवन की ओर भी गयी है। ग्वाल-बालों के गीत, गाय-भैंसों का रोमन्थ, ईख के खेत आदि दृश्य इसी तथ्य की ओर संकेत करते हैं । अवन्ती का वर्णन करते हुए कवि कहता है एत्थथि अवंतीणाम विसउ महिवहु भुँजाविय जेण विसउ । णं दंतहिं गामहिं बिडलारामहिं सरवर कमलहिं लच्छिसहि ॥ गलकल केक्कारहिं हंसहिं मोरहिं मंडिय जेत्थु सुहाइ महि । जहिं चुमुचुमंत केयार कीर वर कलम सालि सुरहिय समीर ॥ -
SR No.521856
Book TitleApbhramsa Bharti 1996 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1996
Total Pages94
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size7 MB
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