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________________ अपभ्रंश भारती - 8 नवम्बर, 1996 11 अपभ्रंश कथा साहित्य के परिप्रेक्ष्य में हिन्दी साहित्य की मिथकीय कथानक रूढ़ियाँ - डॉ. (श्रीमती) पुष्पलता जैन प्राकृत- अपभ्रंश कथा साहित्य की एक लम्बी परम्परा है जिसका प्रारंभ आगम काल से देखा जा सकता है। उसमें उपदेशात्मकता और आध्यात्मिकता की पृष्ठभूमि में आचार्यों ने लोकाख्यानों का भरपूर उपयोग किया है। यद्यपि वहाँ कथा - शैथिल्य और प्रवाह - शून्यता दिखाई देती है पर उपमान, रूपक और प्रतीक के माध्यम से उसकी कमी अधिक महसूस नहीं होती। यह कमी टीकायुगीन प्राकृत कथाओं से दूर होती नजर आती है। नैतिकता के धरातल पर आरूढ़ होकर ये कथाएं लोक-परम्परा की चेतना को संदर्शित करती हैं और मानवीय प्रवृत्तियों को स्पष्ट करती हुई चारित्र की प्रतिष्ठा करती हैं। उनमें जीवन के मधुरिम तत्त्व अभिव्यंजित हैं। उनकी सार्वभौमिकता, संगीतात्मकता और चारित्रिक निष्ठा प्रश्नातीत है । जनश्रुतियों और पौराणिक इतिवृत्तों की पृष्ठभूमि में उनका जो आलेखन हुआ है उसमें सांस्कृतिक तत्त्वों का पल्लवन बड़ी खूबी से हुआ है । इस दृष्टि से पउमचरिउ, तरंगवती - कथा, वसुदेवहिण्डी, समराइच्चकहा, लीलावईकहा, कुवलयमाला आदि प्राकृत कथा-ग्रन्थ द्रष्टव्य हैं। इन कथा-ग्रंथों में अप्राकृतिकता, अतिप्राकृतिकता, अंधविश्वास, उपदेशात्मकता जैसे तत्त्व भरे पड़े हैं और इन्हीं तत्त्वों से सम्बद्ध कथानक रूढ़ियों की सृष्टि हुई है। अपभ्रंश काल में कथाओं का फलक और विस्तृत हो गया। उनमें लोक जीवन के तत्त्व और अधिक घुल-मिल गये । काल्पनिक कथाओं के माध्यम से जीवन के हर बिन्दु को वहाँ गति और प्रगति मिली। पारिवारिक संघर्ष, वैयक्तिक संघर्ष, प्रेमाभिव्यंजना, समुद्र - यात्रा, भविष्यवाणी, प्रिय मिलाप, स्वप्न, सर्पदंश, कर्मफल, अपहरण जैसे सांसारिक तत्त्वों की सुन्दर अभिव्यक्ति
SR No.521856
Book TitleApbhramsa Bharti 1996 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1996
Total Pages94
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size7 MB
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