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अपभ्रंश भारती 7
यह सब देखकर एक विरहिणी अपने हृदय को कैसे वश में रख सकती है ? जल में बोलते हुए हंस और चक्रवाकों की ध्वनि में मानो शरद ऋतुरूपी नायिका के नूपुर ध्वनित होने लगते हैं। ऐसी सुन्दर, सुखद रात्रि विरहिणी नायिका को यमदूती-सी लगने लगती है । सम्पूर्ण वातावरण में आबाल-वृद्ध शरद् - सुख से ओत-प्रोत है । देखते-देखते दीपावली आ जाती है। गृहलक्ष्मयाँ घरों में दीपक जलाती हैं और आंखों में काजल आँजती हैं। रंग-बिरंगे वस्त्रों में सुसज्जित तथा अपने प्रियतमों के साथ रंगरेलियाँ करती हुई उन रमणियों को देखकर नायिका का हृदय विदीर्ण होने लगता है। आखिर मदनाक्रान्ता विरहिणी पथिक से अपने प्रियतम के पौरुष को चुनौती देती हुई कहती है
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कि
अह
तहि देसि णहु फुरइ जुन्ह णिसि णिम्मल चंदह, कलरउ ण कुणंति हंस फल सेवि रविंदह । अह पायउ णहु पढइ कोइ सुललिय पुण राइण, अह पंचमु णहु कुणइ कोइ कावालिय भाइण । महमहइ अहव पच्चूसि णहु ओससित्तु घण कुसुमभरु अह मुणिउ पहिय ! अणरसिउ पिउ सरइ समइ जु न सरइ घरु ॥ 183॥
शरद के बाद हेमन्त ऋतु आती है। हेमन्त जैसे-तैसे बीत जाती है, क्योंकि इतस्तः तुषारापात होने लगता है और ठण्ड के कारण प्रेमी युगलों के शयन कक्ष नीचे की मंजिल में आ गये हैं । दिन छोटे होने लगे हैं। ऐसे में विरहिणी की खीज देखते ही बनती है ।
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'शिशिर ऋतु' आ जाती है। ठण्डी हवाओं के झौंकों के चलने से वृक्षों के पत्ते झड़ने लगते हैं। लगता है - 'ऋतु बसन्त जाचक भया, छोड़ दिये द्रुम पात'। लोग अग्नि की शरण में चले जाते हैं । ईख का रस पीया जाता है। संयुक्ताएँ प्रसन्न रहती हैं। देखते-देखते शिशिर ऋतु भी चली जाती है। वस्तुत: "हेमन्त और शिशिर - वर्णन में कवि को प्रकृति का बहुत कम ध्यान रहता है । इन ऋतुओं का वर्णन करते समय उसका ध्यान मानव-व्यापारों पर ही अधिक केन्द्रित रहता है।''14 ‘बसन्त ऋतु-वर्णन में कवि अब्दुल रहमान का मन अधिक रमा है । वह ' संदेश - रासक' ऋतु - वर्णन में सर्वाधिक लम्बा वर्णन (28 छन्दों में) बसन्त का ही करता है, किन्तु " बसन्त का वर्णन करते समय भी अद्दहमाण का ध्यान प्रकृति में उतना नहीं रमता जितना कि सुखी प्रेमियों की विलास - केलि और नायिका के विरह-दुःख का वर्णन करने में। 15
बसन्तागमन का प्रारंभ होता है त्रिविध शीतल, मंद, सुगंध पवन से । मलयानिल ने वातावरण में सर्वत्र मादकता भर दी है। ऐसे में प्रिय- विरह में व्याकुल विरहिणी के हृदय की क्या अवस्था होगी, यह निम्न छन्द में द्रष्टव्य है
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गयउ गिम्हु अइ दुसहु वरिसु उब्बिन्नियइ, सरउ गयउ अइकट्ठि हिमंतु पवन्नियइ । सिसिर फरसु वुल्लीणु कहव रोवंतियइ, दुक्करु गमियइ एहु णाहु सुमरंतियइ ॥ 204 ॥