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________________ अपभ्रंश-भारती 5-6 जनवरी-जुलाई-1994 65 करकण्डुचरिउ में अणुपेक्खा : प्रयोजन दृष्टि - डॉ. (कु.) आराधना जैन 'स्वतंत्र' जीवन के अव्यक्त रहस्य की भावना व्यक्त करना काव्य का मुख्य उद्देश्य होता है । इस कारण किसी भी जाति और देश का एक युग विशेष में लिखा गया काव्य भी सर्वयुगीन होता है।' काव्यप्रकाश में आचार्य मम्मट ने काव्य के छह प्रयोजनों का निर्देश किया है - (1) यशप्राप्ति, (2) अर्थप्राप्ति, (3) व्यवहार-ज्ञान, (4) अमंगल-निवारण, (5) सधः आनन्द-प्राप्ति और (6) प्रिया के समान मधुर शैली में उपदेश देने की सामर्थ्य - काव्यं यशसेऽर्थकते व्यवहारविदे शिवेतरक्षतये । सद्यः परनिर्वृत्तये कान्तासम्मिततयोददेश पुजे ॥ साहित्य दर्पणकार ने काव्य-प्रयोजनों को निम्न रूप में निरूपित किया है - चतुर्वर्गफलप्राप्तिः सुखादल्पधियामपि । काव्यादेव यतस्तेन तत्स्वरूपं निरूप्यते ॥ उपर्युक्त कथ्यों पर विचार करने से एक तथ्य प्राप्त होता है कि सद्काव्य चतुर्वर्ग का साधक है तथा सधः आनन्द या प्रीति उत्पन्न करना उसका विशिष्ट प्रयोजन है। भारतीय परम्परा अन्तिम पुरुषार्थ 'मोक्ष' को अपना लक्ष्य मानती है और काव्य भी इसी पुरुषार्थ को पुष्ट करता है। आनन्द के पूर्ण प्रस्फुटन का नाम मोक्ष है और सद्काव्य इसी अतीन्द्रिय आनन्द की सद्यः प्रतीति कराता है। अतः सद्काव्य से बढ़कर शिवत्व या मोक्ष का साधक अन्य कोई साधन नहीं हो सकता।
SR No.521854
Book TitleApbhramsa Bharti 1994 05 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1994
Total Pages90
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size7 MB
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