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________________ अपभ्रंश-भारती 5-6 57 हियड़ा फुट्टि तड ति करि कालक्खेवें काई। देक्खउं हय-विहि कहिँ ठवइ पइँ विणु दुक्ख-सयांइ ॥ • जइ केवइ पावीसु पिउ अकिआ कुड्ड करीसु । पाणिउ नवइ सरावि जिवं सव्वंगें पइसीसु ॥ - यदि किसी प्रकार प्रिय को पा लूँगी तो अकृत (अपूर्व) कौतुक करूंगी। पानी नये शराव (कुल्हड, पुरवा) में जैसे (प्रविष्ट हो जाता है) मैं भी सर्वांग से प्रवेश कर जाऊँगी। नायिका मन ही मन संकल्प करती है कि प्रिय आएगा, मैं रूलूंगी और मुझ रूठी हुई को वह मनाएगा; लेकिन उसकी सारी रातें ऐसे ही मनोरथों में नित्य बीत जाती हैं - __ एसी पिउ रूसेसु हऊँ रुट्ठी मइँ अणुणेइ । पग्गिम्व एइ मणोरहइं दुक्करु दइउ करेइ ॥ आखिर प्रिय आता है तो नायिका के सारे मनोरथ ताक पर धरे रह जाते हैं - अम्मीए सत्थावत्थेहिं सुधि चिंतिजइ माणु। पिए दिढे हल्लोहलेण को चेअइ अप्पाणु ॥० - वह कहती है कि री अम्मा ! स्वस्थ अवस्थावाली सुख से मान का चिंतन करे (रूठने की बात सोचे)। प्रिय के दिखाई पड़ने पर हड़बड़ी में अपनापन कौन चेतता है ? यहाँ मुग्धा नायिका का रूठने का संकल्प टूट गया है। मन धोखा दे गया है। वह सोचती है कि मान वह करे जिसकी अवस्था स्वस्थ हो। यहाँ तो प्रिय को देखते ही हड़बड़ी में निजत्व ही बिसर जाता है। नायिका को प्रिय के संगम में नींद कहाँ ! प्रिय की अनुपस्थिति में भी नींद कैसी ? वह दोनों प्रकार से विनष्ट हुई है; नींद न यों न त्यों - पिय-संगमि कउ निद्दडी पिअहो परोक्खहो केम्व । मइँ विनि वि विनासिआ निद्द न एम्व न तेम्व ॥1 रूठना नायिका को मंजूर नहीं है। वह प्रिय से कहती है कि जीवन चंचल है, मरण ध्रुव है। हे प्रिय ! रूसिए क्यों ? रूसने का (रूठने का) दिन तो सौ दिव्य (देवताओं के) वर्षों का होगा। यथा - चंचलु जीविउ ध्रुवु मरणुं पिअरूसिज्जइ काई । होसहिँ दिअहा रूसणा दिव्वई वरिस-सयाई ॥2 जो प्रवास करते हुए प्रिय के साथ नहीं गयी और न उसके वियोग में मुई (मरी) ही, तो सुहृद्जन को संदेश देती हुई लजाती है -
SR No.521854
Book TitleApbhramsa Bharti 1994 05 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1994
Total Pages90
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size7 MB
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