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________________ 56 अपभ्रंश-भारती 5-6 __एक प्रसंग में प्रिय को अग्निसदृश माना गया है और उसके अप्रिय कार्य को भूलती हुई नायिका अपनी दूरदर्शिता दिखाती है। यथा - (नायिका की उक्ति सखी से) - विप्पिअ-आरउ जइ वि पिउ तो वितं आणहि अन्जु । अग्गिण दड्ढा जइ वि घरु तो तें अग्गिं कज्जु ॥ - यद्यपि प्रिय विप्रियकारक है तो भी आज उसे ला। यद्यपि आग से घर जल जाता है तो भी उस आग से काज है अर्थात् उस आग से काम पड़ता ही है। तात्पर्य यह है कि पुरुष युगों से स्वेच्छाचारी होते ही आए हैं। कहीं के कहीं रम गए। लेकिन नारी उसे कैसे छोड़ दे ? आग से घर जलता जरूर है, फिर भी उससे काम लेना कोई कैसे छोड़ दे? यहाँ दो अंश अवलोकनीय हैं - एक तो यह कि पुरुष की बेवफ़ाई के प्रति नारी की शिकायत का इतिहास बहुत पुराना है और दूसरे इन शिकायतों में प्रेम-पीड़ित हृदय की धड़कनों की बारात सजी हुई है। ज्यों-ज्यों श्यामा (षोडशी) अधिकाधिक लोचनों को बंकिमा सिखाती है, त्यों-त्यों मन्मथ अपने शरों को खरे पत्थर पर तीखा करता है और यह प्रसंग दोहे का लिबास पहनकर कविमानस से आविर्भूत होता है। यथा - जिवे जिवं वंकिम लोअणहं णिरु सामलि सिक्खेइ । तिवें तिवें वम्महु निअय-सर खर-पत्थरि तिक्खेइ । वायस उड़ाती हुई प्रिया ने सहसा प्रिय को देखा। देखते ही उसके आधे वलय पृथ्वी पर गिरे और आधे तड़तड़ टूट गए।जब इस सुंदर प्रसंग ने शब्दरूप धारण कर लिया तब निम्नलिखित दोहा अवतीर्ण हुआ - वायसु उड्डावन्तिअए पिउ दिट्ठउ सहस त्ति । अद्धा वलया महिहि गय अद्धा तड त्ति ॥ उक्त दोहे में प्रिया की विरह-जनित कृशता एवं तदुपरान्त प्रिय-दर्शन से उत्पन्न प्रसन्नता की ओर संकेत किया गया है। उभय भावों के फलस्वरूप उक्त प्रसंग अनूठा बन गया है। विरहजनित कृशता के कारण कुछ चूड़ियाँ ढीली होकर गिर पड़ी हैं; लेकिन प्रिय के दर्शन की खुशी में सहसा वह इतनी मोटी हो गई कि बाकी चूड़ियाँ टूट गयीं। अपने हृदय को संबोधित करते हुए एक नारी कहती है कि हे हृदय, तड़क कर फट जा। कालक्षेप (देर) करने से क्या (लाभ)? फिर देखू कि यह हतविधि (मुआ विधाता) इन सैकड़ों दु:खों को तेरे बिना कहाँ रखता है ? प्रिय की अनुपस्थिति में नायिका ने मन ही मन नाना प्रकार के संकल्प किये हैं। इस बार उसने ऐसी क्रीड़ा करने का इरादा किया जैसी कभी नहीं की थी। उसका विचार था कि जिस तरह मिट्टी के नये बर्तन में रखते ही पानी उसके कण-कण में भिद जाता है उसी तरह मैं उसके सर्वांग में प्रवेश कर जाऊँगी -
SR No.521854
Book TitleApbhramsa Bharti 1994 05 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1994
Total Pages90
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size7 MB
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