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________________ अपभ्रंश-भारती 5-6 रयणीतमविद्दवणो अमियंझरणो सुपुण्णसोमोय । अकलंक माइ वयणं वासरणाहस्स पडिबिंबं ॥33॥ लोयणजुयं च णजइ रविदलं दीहरं च राइल्लं । पिंडीरकुसुमपुंजं तरुणिकवोला कलिजति ॥34॥ विरहिणी नायिका के बाहु-युगल अमरसर (मानसरोवर) में उत्पन्न कोमल मृणाल नाल के समान हैं। इन बाहुओं के आखिरी किनारे पर कमल के समान हाथ ऐसे लग रहे हैं मानो द्विधाभूत (एक से दो कर दिये गये) पद्म हों। दोनों स्तन सुजन और खल की तरह हैं; स्तब्ध नित्य उन्नत और मुखरहित (छिद्ररहित) होने के कारण खल की भाँति हैं और मिलने पर (संगम में) सुजन की भाँति वे दोनों (स्तन) अंगों को आश्वस्त करते हैं - कोमल मुणालणलयं अमरसरुपन्न बाहुजुयलं से । ताणते करकमलं णज्जइ दोहाइयं परमं ॥35॥ सिहणा सुयण-खला इव थड्ढा निच्चुन्नया य मुहरहिया । संगमि सुयणसरिच्छा आसासहि बेवि अंगाई ॥ 36॥ पर्वतीय नदी के गंभीर आवर्त की भाँति उस नायिका की नाभि थी और कटि मर्त्य सुख की भाँति सूक्ष्म है, जो तरलगति का हरण करनेवाली है; अर्थात् जिसके कारण वह तेजी से चल नहीं पाती। उसके अति रम्य उरु कदली-स्तंभ से बढ़कर हैं । सरस और सुमनोहर जंघाएँ वृत्ताकार और नातिदीर्घ हैं। चरणों की अंगुलियाँ पद्मराजि की तरह हैं। नखपंक्ति स्फटिक खण्डों की भाँति हैं और कोमल रोम तरंग उद्भिन्न कुसुमनाल की भाँति हैं - गिरिणइ समआवत्तं जोइज्जइ णाहिमंडलं गुहिरं । मझं मच्चसहं भिव तुच्छं तरलग्गई हरणं ॥37॥ जालंधरिथंभजिया उरु रेहेति तासु अइरम्मा । वट्टा य णाइदीहा सरसा सुमणोहरा जंघा ॥38॥ रेहंति पउमराइ व चलणंगुलि फलिहकुट्टिणहपंती । तुच्छं रोमतरंगं उब्बिन्नं कुसुमनलएसु ॥39॥ इस प्रकार अपने रूप-वर्णन को सुनकर वह राजमरालगामिनी लज्जावती वियोगिनी पैर के अंगूठे से धरती कुरेदने लगी। इस वियोगिनी नायिका के रूप-वर्णन के अतिरिक्त कवि श्री अद्दहमाण ने साम्बपुर की स्त्रियों का भी रूप-वर्णन परंपरित ढंग से बड़ा ही सरस एवं सहज रूप में किया है। कवि साम्बपुर की वेश्याओं को देखकर विस्मित हो जाता है। वह देखता है - विशाल गज के समान मंथर चलनेवाली कोई नर्तकी या वेश्या मदविह्वल होकर घूमती है। किसी अन्य के (कानों में पहने हुए) रत्न ताटंक हिलते हैं। और कहीं निपट उभरे हुए घनतुंग वक्षस्थलोंवाली सुन्दरी भ्रमण कर रही है, बड़े स्तनों के भार से कमर टूट नहीं जाती, यही देखकर मन में आश्चर्य होता है, किसी व्यक्ति के साथ उन कजरारी तिरछी आँखों से, जिनमें बनावटी कोप का भाव है, हँस-हँस कर बात कर रही हैं। कोई अन्य सुविचक्षणा जब विमल हँसी हँसती
SR No.521854
Book TitleApbhramsa Bharti 1994 05 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1994
Total Pages90
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size7 MB
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