________________
अपभ्रंश-भारती 5-6
43
के दृष्टिकोण के अनुसार कुछ का तो परित्याग कर दिया और कुछ को ज्यों का त्यों स्वीकार कर लिया। आगे चलकर 'नायिका-निरूपण' के क्षेत्र में 'साहित्य दर्पण' और 'रसमंजरी' ने अच्छा योगदान किया।
नायक-वर्णन
नायिका वर्णन के समान ही नाट्यशास्त्रकार भरतमुनि ने नायकों की जो श्रेणियाँ निर्धारित की हैं। उन्हें परवर्ती आचार्यों ने यथासम्भव परिवर्तित कर स्वीकार किया। ___इस प्रकार नायिका और नायक भेद की जिस दृष्टि का श्रृंगार के आलंबन विभाव के रूप में संस्कृत के ग्रंथों में प्रचलन हुआ उसे अपभ्रंश की काव्यधारा के अंतर्गत कमोबेश आश्रय प्राप्त हुआ। उद्दीपन विभाव
आचार्य भोजराज ने श्रृंगार रस के उद्दीपन विभाव की कल्पना पाँच वर्गों में विभाजित करके की है - (1) ऋतु, (2) बाह्य-प्रसाधन, यथा - मलय एवं अंगराग इत्यादि, (3) प्राकृतिक दृश्य, जैसे- सरिता, उपवन, पर्वत आदि, (4) काल - रात्रि, मध्याह्न आदि, (5) 64 कलाएँ।” . अतः इस वर्गीकरण के अनुसार उद्दीपन विभावों की श्रेणी में चन्द्र-चाँदनी, ऋतु, उपवन, मलय-पवन, अंगरागादि को लिया जा सकता है। पं. रामदहिन मिश्र ने इस विषय में अपना मत देते हुए कहा है - "सखी, सखा तथा दूती को संस्कृत के आचार्यों ने शृंगार रस में नायकनायिका के सहायक एवं सचिव माना है, किन्तु हिन्दी में इनकी गणना उद्दीपन विभाव में की है। इनके उद्दीपन विभाव मानने का कारण यह जान पड़ता है कि सखा, सखी या दूती के दर्शन से नायिकागत या नायकगत अनुराग उद्दीपित होता है। भरतमुनि के वाक्य में प्रियजन शब्द के आने से संभव है हिन्दीवालों ने इन्हें उद्दीपन में मान लिया है। पंडित रामदहिन मिश्र ने नायकनायिका की वेशभूषा, चेष्टा आदि, पात्रगत तथा षड्ऋतु, नदीतट, चाँदनी, चित्र, उपवन, कविता, मधुर संगीत, मादक वाद्य, पक्षियों का कलरव आदि को भी श्रृंगार के बहिर्गत उद्दीपन-रूप में स्वीकार किया है। इसके अतिरिक्त नायिका का नख-शिख सौन्दर्य भी उद्दीपन विभाव के अन्तर्गत आता है। अनुभाव
शृंगारिक अनुभावों में प्रेमपूर्ण आलाप, स्नेह-स्निग्ध परस्परावलोकन, आलिंगन, चुम्बन, रोमांच, स्वेद, कम्प, नायिका के भ्रूभंग आदि अनेक भाव आते हैं। आचार्यों ने इनको कायिक, वाचिक और मानसिक वर्गीकरण के रूप में विभाजित कर दिया है। संचारी भाव
समस्त विद्वानों ने संचारी भावों की संख्या 33 स्वीकार की है। इनमें उग्रता, मरण तथा जुगुप्सा के अतिरिक्त उत्सुकता, लज्जा, जड़ता, चपलता, हर्ष, मोह, चिन्ता आदि सभी भाव शृंगार रस के संचारी भाव होते हैं। ये संचारी भाव श्रृंगार के व्यभिचारी भाव कहलाते हैं।