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________________ 16 अपभ्रंश-भारती 5-6 णं अमरविमाणहिँ मणहरेहिँ जा वेढिय परिहाजलभरेण णं मेइणि रेहइ सायरेण । उत्तुंगधवलकउसीसएहिँ णं सग्गु छिवइ वाहूसएहिं । जिणमन्दिर रेहहिँ जाहिँ तुंग णं पुण्णपुंज णिम्मल अहंग । कोसेयपडायउ घरि लुलंति णं सेयसप्प णहि सलवलंति । जा पंचवण्णमणिकिरणदित्त कुसुमंजलि णं मयणेण पित्त । चित्तलियहिं जा सोहइ घरेहि पां अमरविमाणहिँ मणहरेहिं । णवकुंकुमछडयहिँ जा सहेइ समरंगणु मयणहो णं कहेइ । रत्तुप्पलाई भूमिहिँ गयाइँ णं कहइ धरती फलसयाई । जिणवासपुज्जमाहप्पएण ण वि कामुय जित्ता कामएण। करकंडचरिउ 1.4 वह चम्पा नगरी जल-भरी परिखा से घिरी होने के कारण, सागर से वेष्टित पृथ्वी के समान शोभायमान है। वह अपने ऊँचे प्रासाद-शिखरों से ऐसी प्रतीत होती है मानो अपनी सैकड़ों बाहुओं द्वारा स्वर्ग को छू रही हो। वहाँ विशाल जिनमंदिर ऐसे शोभायमान हैं मानो निर्मल और अभंग पुण्य के पुंज ही हों। घर-घर रेशम की पताकाएँ उड़ रही हैं मानो आकाश में श्वेत सर्प सलबला रहे हों। वह पचरंगे मणियों की किरणों से देदीप्यमान हो रही है मानो मदन ने अपनी कुसुमांजलि ही चढ़ायी हो। वह चित्रमय घरों से ऐसी शोभायमान है जैसे मानो वे देवों के मनोहर विमान ही हों। नयी केशर की छटाओं की वहाँ ऐसी शोभा है कि मानो वह कह रही हो कि मदन का समरांगण यही तो है। वहाँ स्थान-स्थान पर रक्त-कमल बिखरे हुए हैं,मानो वह पुकार-पुकारकर कह रही है कि मैं ही सैकड़ों प्रकार के फलों को धारण करती हूँ। वहाँ भगवान वासुपूज्य के माहात्म्य से पुरुष कामी होकर कामदेव द्वारा जीते नहीं जाते। अनु. - डॉ. हीरालाल जैन
SR No.521854
Book TitleApbhramsa Bharti 1994 05 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1994
Total Pages90
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size7 MB
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