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अपभ्रंश-भारती-3-4
घर में शूर
एक गाँव में एक स्वर्णकार रहता था। राजपथ के मध्यभाग में उसकी दुकान थी। वह सदा मध्यरात्रि में सोने से भरी हुई पेटी को लेकर निजघर में आता था। एक बार उसकी पत्नी के द्वारा सोचा गया - यह मेरा पति पेटी को लेकर सदैव मध्यरात्रि में घर में आता है, वह ठीक नहीं है। जब कभी मार्ग में चोर मिलेंगे तो क्या होगा? तब उसके द्वारा अपना पति कहा गया - "हे प्रिय ! मध्यरात्रि में तुम्हारा इस प्रकार घर में आगमन अच्छा नहीं है, मार्ग में कभी भी कोई मिलेगा तो क्या होगा?" उसने कहा - "तुम मेरे बल को नहीं जानती हो, इसलिए (ही) तुम बोलती हो। मेरे सामने सैंकड़ों मनुष्य भी आयेंगे, वे क्या करेंगे ? मेरे सामने वे कुछ भी करने के लिए समर्थ नहीं हैं । तुम्हारे द्वारा भय नहीं किया जाना चाहिए।" इस प्रकार सुनकर उसके द्वारा विचारा गया - मेरा पति घर में शूर है, (मैं) समय पर उसकी परीक्षा करूँगी।
एक बार वह अपने घर के समीप रहनेवाली क्षत्रियाणी के घर में जाकर कहती है - "हे प्रिय सखी ! तुम तुम्हारे पति के सभी वस्त्र-आभूषण मेरे लिए दे दो, मेरा कोई प्रयोजन है।" उस क्षत्रियाणी के द्वारा अपने प्रिय की तलवारसहित सिर ढकनेवाला तथा कटिपट्ट आदि योद्धा की वेशभूषा (आदि) सब ही दे दी गई। वह (उन्हें) लेकर घर में गई। __जब रात्रि में एक प्रहर बीता तब वह उस सभी योद्धावेश को पहिनकर तलवार को लेकर संचाररहित राजमार्ग पर निकल गई। पति की दुकान से नजदीक पेड़ के पीछे अपने को छिपाकर खड़ी रही। कुछ समय में वह सुनार दुकान को बंदकरके, पेटी को हाथ से लेकर भय से घबराया हुआ इधर-उधर देखता हुआ, शीघ्र जाता हुआ जब उस पेड़ के समीप आया तब पुरुष का वेश धारण करनेवाली वह अचानक निकलकर मौन से उसका तिरस्कार करती है (और संकेत से कहती है) -हुं-हुँ, सब छोड़ो अन्यथा मार दूंगा। वह अचानक रोक लिया गया, भय से थरथर काँपता हुआ - 'मुझको मत मारो, मुझको मत मारो,' इस प्रकार कहकर पेटी देदी। तब उसने सभी पहिने हुए वस्त्रों को लेने के लिए तलवार की नोक उसकी छाती पर रखकर पहने हुए वस्त्र भी उतरवा लिये। तब वह कटिपट्टमात्र ही पहने हुए रहा। तब उस कटिपट्ट को भी मरणभय को दिखाकर उतरवा लिया। वह अब बच्चे के समान नग्न हुआ। वह सब लेकर घर गई, घर के द्वार को ढककर (बन्दकर) अन्दर बैठ गई।