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अपभ्रंश-भारती-3-4
रामायण और महाभारत के उदाहरण द्वारा मैंने पहले ही कहा है कि भारतीय साहित्य विरुद्धों का सामंजस्य है। हिन्दी भाषा इससे अछूती नहीं है । वस्तुतः हिन्दी भाषा की प्रकृति इसी चरित्र से जुड़ी है। भाषाओं के लम्बे इतिहास में ऐसे बहुरूपी भाषा का अस्तित्व और कहीं नहीं मिलता। अनेक जनपद में व्यवहृत अट्ठारह बोलियों के वैविध्य को, जिनमें से कई व्याकरणिक दृष्टि से एक-दूसरे की विरोधी विशेषताओं से युक्त कही जा सकती हैं, हिन्दी भाषा बड़े सहज भाव से धारण करती है। इसीलिए ग्रियर्सन में जगह-जगह वैचारिक द्वैत की भावना है - "गंगा के समस्त कांठे में बंगाल और पंजाब के बीच अपनी अनेक स्थानीय बोलियों सहित केवल एकमात्र प्रचलित भाषा हिन्दी ही है।"... "इस क्षेत्र के लोग द्विभाषी हैं अतएव व्यवहार में उन्हें किसी प्रकार की कठिनाई नहीं होती और ये लोग नहीं चाहते कि शासन-कार्य के लिए अनेक भाषाएं स्वीकार कर कठिनाई उत्पन्न की जाय।" 1855 में विलियम केरे ने कहा- "इस बोली से मैं सारे हिन्दुस्तान को समझा सकूँगा।" बाइबिल के अनुवादों के सिलसिले में केरे ने हिन्दी क्षेत्र की बोलियों का गहराई के साथ परीक्षण किया था। ग्रियर्सन यह भी स्वीकार करते हैं कि हिन्दी क्षेत्र की बोलियों की विशेषताएं सारी आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं की विशेषताओं के समतुल्य हैं और इन हिन्दी बोलियों की केन्द्रीय भाषा मध्यप्रदेश की भाषा रही है, हमेशा रही है। इन बोलियों को एक नाम देने का पहले भी प्रयास हुआ - कभी हिन्दी, कभी हिंदवी और कभी हिंदुई। किन्तु इनमें हिन्दी ही नाम चला, आज भी चल रहा है । कबीर, जायसी, सूर, तुलसी, मीरा, आलम, भारतेन्दु, मैथिलीशरण गुप्त, प्रसाद, निराला, अज्ञेय आदि समान रूप से हिन्दी के कवि हैं। इनकी रचनाओं का इतिहास हिन्दी संवेदना का इतिहास है। बिहारी बोलियों का व्याकरण भले ही बंगला जैसा हो, पर इससे बिहार की भाषिक स्थिति स्पष्ट नहीं होती। बल्कि इस दृष्टि से भी विचार करना अनावश्यक है कि वहाँ के निवासी अपनी काव्यभाषा अर्थात् अपनी संवेदना की अभिव्यक्ति के लिए किस भाषा का चयन करते हैं। और उनकी यह भाषा कभी पुरानी हिन्दी (विद्यापति) रही और कभी ब्रज अथवा अवधी और आज खड़ी बोली है। इस दृष्टि से भी भाषा-निर्णय अपेक्षित है कि उनकी जातीय पाठ्य-रचना कौन-सी है। मुझे यह कहने में संकोच नहीं कि यह रचना रामचरितमानस है, ठेठ हिन्दी का, बंगला का नहीं। अतः बिहार क्षेत्र की संवेदना हिन्दी क्षेत्र से इतर नहीं, फिर उसकी भाषा कैसे इतर होगी ?
काव्यभाषा एक ओर जनबोली से शक्ति लेती है और दूसरी ओर उसे परिष्कार देती है। हिन्दी काव्यभाषा ने समूचे बिहार की बोलियों से शक्ति को ही नहीं ग्रहण किया अपितु कथात्मक संवेदनाएं भी ग्रहण की। वह समूचे हिन्दी जनसमाज को परस्पर जोड़ने का कार्य करती है। इसीलिए स्वतंत्रता-आन्दोलन के नेताओं ने हिन्दी का ही सहारा लिया। समूचे क्षेत्र की काव्यभाषा का आधार हर युग में एक रहा। कभी अपभ्रंश -अवहट्ट का रूप रहा और फिर ब्रज एवं अवधी और अब फिर खड़ी बोली का।
हिन्दी साहित्य के आरम्भ पर विवाद है। पर मेरी दृष्टि में किसी साहित्य के आरम्भ की पहचान वहाँ की जा सकती है जहाँ वह धार्मिक, कर्मकाण्ड, रूढ़िवादिता और रहस्य भावना से उन्मुक्त होकर लोकसामान्य की भावभूमि पर प्रतिष्ठित हो रहा हो, लोक-संवेदना को वह अपना उपजीव्य बना रहा हो और अभिव्यक्ति का माध्यम एक नयी भाषा को बना रहा हो। इस