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अपभ्रंश-भारती-2
जुलाई, 1992
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अपभ्रंश वाङ्मय में व्यवहृत पारिभाषिक शब्दावलि और उनका अर्थ-अभिप्राय
• डॉ. आदित्य प्रचण्डिया 'दीति'
वैदिक, बौद्ध और जैन मान्यताओं पर आधारित संस्कृतियाँ भारतीय संस्कृति का संगठन करती हैं। भारतीय संस्कृति को जानने के लिए इन संस्कृतियों का जानना परम आवश्यक है । इन संस्कृतियों को जानने के लिए मुख्यतया दो स्रोत प्रचलित हैं - (1) व्यावहारिकपक्ष (2) सिद्धान्तपक्ष। काल और क्षेत्र के अनुसार व्यावहारिक पक्ष में प्रचुर परिवर्तन होते रहे किन्तु वाङ्मय में प्रयुक्त शब्दावलि में किसी प्रकार का परिवर्तन सम्भव नहीं हो सका । इस प्रकार के साहित्य को समझने-समझाने के लिए उसमें व्यवहृत शब्दावलि को बड़ी सावधानी से समझना चाहिए । इस दृष्टि से अपभ्रंश वाङ्मय में जैन संस्कृति से सम्बन्धित अनेक पारिभाषिक शब्दों का व्यवहार हुआ है जिनका अर्थ वैदिक और बौद्ध-संस्कृतियों की अपेक्षा भिन्न है । शब्द का सम्यक् विश्लेषण कर हमें उसमें व्याप्त अर्थात्मा को भली-भाँति जानना और पहिचानना चाहिए । ऐसी जानकारी प्राप्त करने के लिए शब्द-साधक को किसी भी पूर्व आग्रह का प्रश्रय नहीं लेना होगा । वह तटस्थ भाव से तत्सम्बन्धी सांस्कृतिक-शब्दावलि को जानने का प्रयास करता है । महात्मा भर्तृहरि का कथन है -
सा सर्व विद्या शिल्पाना कलाना चोपबन्धिनी ।
तद् शब्दाभिनिष्पन्न सर्व वस्तु विभज्यते ॥ ___ अर्थात् समस्त विद्या, शिल्प और कला शब्द की शक्ति से सम्बद्ध है । शब्द शक्ति से पूर्ण या सिद्ध समस्त वस्तुएँ विवेचित और विभक्त की जाती हैं । अभिव्यक्ति के प्रमुख उपकरणों में भाषा का स्थान महनीय है । अभिव्यक्ति और अर्थ-व्यंजना में शब्द शक्ति की भूमिका महत्त्वपूर्ण