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अपभ्रंश-भारती-2
मुक्कु गिंभणाम सरो
णिसियरु रोसवसु सरु सिसिरु सचावि णिवेसइ । दोहग्गयचित्तु जिह दीहरु सहसा सपेसइ ।।
हिमकणमिसेण णवर परिपडुरु सउरिसजसु व धावए । अहिणवपणउ जेम वियरतउ तणुरोमचु दावए ।। सिसिरवाणप्पहारेण ओणल्लिया, वितरी बोल्लिया ।
इय पर्यपेइ तो गिभ णाम सरो, मुक्कु भाभासुरो । तप्पहावेण धगधगइ धूलीसरं, भमइ डबरं । लुलइ किडि कद्दमे सुसइ पल्ललजल, जलइ दावाणल । दुसहजलतिसए फुट्टेइ जीहादल, सरइ जणु तरुतल ।
सुदसणचरिउ 11.20, 21
- (निशाचर एवं व्यंतरी में परस्पर युद्ध हो रहा है) तब निशाचर ने रोष के वशीभूत अपने धनुष पर दीर्घ शिशिर बाण रखा (और) उसे सहसा छोड़ दिया, जिस प्रकार कोई दुखी चित होकर अपने सिर को हाथ पर रखे और दीर्घ ठण्डा स्वर छोड़ता है ।
वह अति श्वेत बाण ऐसे दौड़ा जैसे मानो हिमकणों के बहाने से किसी सत्पुरुष का अति उज्ज्वल यश प्रसार कर रहा हो । उसने ऐसा रोमांच प्रकट किया मानो वह अभिनव प्रणय कर रहा हो। (उस) शिशिरबाण के प्रहार से आहत व्यंतरी बोली ।
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ऐसा कहते ही व्यंतरी ने अभी प्रभा से चमकता हुआ ग्रीष्म नामक बाण छोड़ा । उसके प्रभाव से धूलि-प्रवाह धगधगाने लगा । रज का बवंडर घूमने लगा । कीचड़ में शूकर लोटने लगा। कुंडी का जल सूखने लगा और दावानल जलने लगा । जल की दुसह प्यास से जिह्वादल फूटने लगा और लोग तरुतल की शरण लेने लगे ।
अनु., डॉ. हीरालाल जैन