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अपभ्रंश-भारती-2
विरहिणी का सर्वांग विरहाग्नि से 'तड़-तड़ करके जल उठा । कंदर्प दर्पपूर्वक धनुष कड़-कड़ाकर बाण छोड़ने लगा । फिर भी वियोगिनी की शय्या के निकट वह चित्तहर नहीं आया । परदेश में ही वह कापालिक खल-शबर घूमता रहा ।।
इसी प्रकार हेमन्त ऋतु आयी और चली गयी, किन्तु प्रियतम घर न आया । हेमन्त के अनन्तर वसंत अपनी पूर्ण सम्पत्ति के साथ विकसित हो उठा । वसंत के उल्लास, उसकी पुष्प-समृद्धि, वर्ण-सौन्दर्य आदि का कवि ने सुन्दर वर्णन प्रस्तुत किया है ।59
'सन्देश रासक' का ऋतु-वर्णन स्वाभाविक है, जो कवि की निरीक्षण शक्ति का परिचायक है। प्रत्येक ऋतु में प्राप्य और दृश्यमान वस्तुओं का वर्णन मिलता है । इस प्रसंग में ग्राम्य जीवन का चित्र भी स्थान-स्थान पर कवि ने अकित किया है । वर्षा ऋतु में पथिक हाथ में जूते उठाकर जल पार करता है -
गिभ तविण खर ताविय बहु किरणुक्करिहि, पउ पडतु पुक्खरहु ण भावइ पुक्खरिहि । पयहत्थिण किय पहिय पहिहि पवहतियहि,
पइ पइ पेसइ करलउ गयणि खिवंतयहि ॥६० दीपावली के अवसर पर आँखों में काजल डाले और गाढ़े रंग के वस्त्र पहने ग्राम्य नारियों का भी कवि ने वर्णन किया है -
दितिय णिसि दीवालिय दीवय, णवससिरेह सरिस करि लीअय, मंडहि भुवण तरुण जोइक्खहि, महिलिय दिति सलाइय आक्खिहि । कसिणंबरिहिं विहाविह भगिहिँ, कड्ढिय कुडिल अणेगतरंगिहिँ । मियणाहिण मयवट्ट मणोहर,
चच्चिय चक्कावट्ट पयोहर ॥61 शिशिर में थोड़ा-सा औटाकर सुगन्धित ईख का रस पीते हुए लोग भी दिखायी देते हैं
मज्जमुक्क सठविउ विवह गधक्करसु, पिज्जइअद्धावट्टउ रसियहि इक्खरसु । कुंदचउत्यि वरत्थणि पीणुन्नयथणिय,
णियसत्थरि पलुटंति केवि सीमतिणिय ॥2 इस प्रकार यह ऋतु-वर्णन उद्दीपन रूप में होते हुए भी स्वाभाविक और आकर्षक है । वर्णन में हृदय की आभ्यन्तर स्थिति का बाह्य प्रकृति में कहीं-कहीं दर्शन हो जाता है । जायसी की भाँति अद्दहमाण के सादृश्यमूलक अलंकार, और बाह्यवस्तु-निरूपक वर्णन बाह्यवस्तु की ओर पाठक का ध्यान न ले जाकर विरह-कातर व्यक्ति के मर्मस्थल की पीड़ा को अधिक व्यक्त करते हैं । कवि प्राकृतिक दृश्यों का चित्र इस कुशलता से अंकित करता है कि इससे विरहिणी के विरहाकुल