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________________ 20 अपभ्रंश-भारती-2 'लोहिय लुढ़ें जगु फाडियउ' में यद्यपि कुछ जुगुप्सा का भाव है किन्तु वर्णन में नवीनता है। इसी प्रकार शिप्रा नदी का सुन्दर वर्णन कवि ने किया है ।34 शब्द-योजना और छन्द प्रयोग से मन्द-मन्द गति से कल-कल ध्वनि करती हुई नदी की कल्पना बड़ी ही मनोरम बन पड़ी है। इसी प्रकार उद्यान वर्णन35 आदि बड़ा सुन्दर बन पड़ा है । संध्या वर्णन में सूर्य के निस्तेज होने का श्लेष द्वारा कारण प्रतिपादन, संध्या के विलुप्त होने की कल्पना और चन्द्र का वर्णन परम्परा-भुक्त नहीं कवि की नवोन्मेषिणी प्रतिभा के द्योतक हैं । संध्या का लतारूप में जग-मंडप पर छा जाना, तारों के रूप में पुष्प और चन्द्र-रूप में फल का प्रतिपादन, सुन्दर कल्पना है ।36 प्रकृति का वर्णन शुद्ध आलंबन रूप में कवि ने किया है । मानव पृष्ठभूमि के रूप में प्रकृति का अंकन नहीं मिलता । इसी प्रकार वीर कवि विरचित 'जबूसामिचरिउ37 में उद्यान और वसन्तादि३१ के वर्णनों द्वारा कवि ने प्राकृतिक चित्र उपस्थित किया है । नयनंदी कृत 'सुदसणचरिउ40 में कवि ने प्राकृतिक दृश्यों के वर्णन में प्रायः सभी प्रसिद्ध उपमानों का प्रयोग किया है । यह वर्णन अधिकतर उद्दीपन रूप में ही दिखायी देता है । नदी, वसंत-2, प्रभात वर्णन43 और सूर्यास्त वर्णन द्वारा सुन्दर चित्र अकित किया है । इस कवि के वसन्तोत्सव, उपवन विहार, सूर्यास्त आदि वर्णनों में उसका बाह्य-प्रकृति का निरीक्षण दिखायी देता है । अतः प्रकृति का निरीक्षण स्त्री-प्रकृति अंकन में दृष्टिगत होता है। 'करकंडचरिउ44 में कवि ने यद्यपि प्राकृतिक दृश्यों का वर्णन किया है, किन्तु वर्णनों में कोई विशेष चमत्कार और नवीनता नहीं मिलती । कवि का हृदय प्रकृति में भली-भाँति रम नहीं पाया। प्रकृति उसके हृदय में वह स्पन्दन और स्फूर्ति नहीं पैदा कर सकी, जो इसके पूर्व पुष्पदन्त आदि कवियों में दिखायी देती है । उदाहरण के लिए गंगा वर्णन 5 और सरोवर वर्णन को देखा जा सकता है। 'पउमसिरीचरिउ47 में प्रकृति के कुछ खंडचित्र कवि ने अकित किये हैं । वर्णन नायक-नायिका के कार्य की पृष्ठभूमि के रूप में उपलब्ध होते हैं । पद्मश्री युवावस्था में पदार्पण करती है, उसके और समुद्रदत्त के हृदय में पूर्वानुराग को उत्पन्न करने के लिए कवि ने वसंत मास का 48 और अपूर्वश्री उद्यान की शोभा का वर्णन किया है । वर्णन में कोई विशेषता नहीं । परंपरानुसार अनेक वृक्षों के नाम दिये गये हैं । कोयल का कूकना, भौरों का गूंजना आदि का कवि ने वर्णन किया है। पद्मश्री और समुद्रदत्त के विवाहानन्तर कवि संध्या और चन्द्रोदय का वर्णन करता है ।50 इन वर्णनों में प्रकृति बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव से भी अंकित की गयी है । इधर पद्मश्री का हृदय अनुरागपूर्ण और पतिमिलन के लिए उत्सुक है, उधर गुरु रागरंजित संध्यावधू उत्कंठित है। इन वर्णनों में कवि की कल्पना कहीं-कहीं अनूठी और अद्भुत है । संध्या समय कमल बंद होने को है, उनमें से भौरे निकल-निकल कर उड़ रहे हैं । कवि कहता है मानो कमलिनी काजलयुक्त अश्रुओं से रो रही है ।51 प्रकृति वर्णन में एक हल्की-सी उपदेश भावना भी मिलती है । सूर्योदय का वर्णन करता हुआ कवि कहता है - परिगलय रयणि उग्गमिउ भाणु उज्जोइउ मज्झिम भुयण भाणु । विच्छाय कंति ससि अत्थमेइ सकलंकह कि थिरु उदउ होइ । मउलति कुमुय महुयर मुयति थिर नेह मलिण कि कह वि हुति ।52
SR No.521852
Book TitleApbhramsa Bharti 1992 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Chhotelal Sharma
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1992
Total Pages156
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size11 MB
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