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अपभ्रंश-भारती-2
फग्गुणु गउ महमासु परायउ, वय सय कुसुमिय चारु मणोहर, गुमुगुमंत स्वणमणई सुहावहिं, केसु व वर्णाहिं धणारुण फुल्लिय, घरि-घरि णारि णिय तणु मंडहिं,
मयणुछलिउ लोउ अणुरायउ । वहु मयरंद मत्त वहु महयर । अहपणट्ठ पेम्मुउक्कोवहिं । णं विरहग्गे जाल पमिल्लिया । हिंदोलहिं हिंडहि उग्गायहिं । वणि परपुट्ठ महुरु उल्लावहिं, सिहिउलु सिहि सिहरेहिं धहावा 127
फाल्गुन मास समाप्त हुआ और मधुमास (चैत्र) आया । मदन उद्दीप्त होने लगा । लोक अनुरक्त हो गया । वन नाना पुष्पों से युक्त सुन्दर और मनोहर हो गया । मकरन्द पान से मत्त मधुकर गुनगुनाते हुए सुन्दर प्रतीत हो रहे हैं ! घरों में नारियाँ अपने शरीर को अलंकृत करती हैं, झूला झूल रही हैं, विहार करती हैं, गाती हैं, वन में कोयल मधुर आलाप करती हैं । सुन्दर मयूर नृत्य कर रहे हैं ।
धू कवि विरचित 'पद्मपुराण - बलभद्रपुराण' में भी प्रकृति वर्णन यत्र-तत्र मिलता ने ग्रीष्मकाल का वर्णन अत्यन्त संक्षिप्त रूप में किया है
पुणु उण्ह कालि पव्वय सिरेहिं । स्वर किरण करावलि तप्पिरेहिं ॥
सिरि रागम चउपहिं झाण लीणु । अहणिसु तव तावे गत्त स्वीणु ॥ 28
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कवि पुष्पदंत द्वारा विरचित खण्ड काव्य 'णायकुमारचरिउ' 29 में वर्णित प्रकृति वर्णन में कोई नवीनता नहीं दिखायी देती । निम्नलिखित उद्धरण में बाण की शैली के अनुरूप कवि ने वट वृक्ष की सत्पुरुष से समानता दिखायी है । यहाँ शब्दगत साम्य के अतिरिक्त अन्य कोई साम्य नहीं । नवीन चित्रोत्पादिनी कल्पना का अभाव है
सप्पुरिसु व थिरमूलाहिठाणु सप्पुरिसु व अकुसुमफलणिहाणु । सप्पुरिसु व कइ सेविज्जमाणु सप्पुरिसु व दिय वरदिण्ण दाणु ॥ सप्परिसु व परसंतावहारि सप्पुरि व पत्तुद्धरणकारि । सप्पुरिस व तहिं वडविडवि अत्थि जहिं करइ गंडकंडुयणु हत्यि ॥ 30
| कवि
'जसहरचरिउ' 31 में शुकों का क्षेत्रों में चुगना, गौओं का इक्षु-खण्ड खाते हुए विचरण करना, वृषभ का गर्जन और जीभ से गौ को चाटना, भैंसों का मंथरगति से चलना, प्रपापालिका बालिकाओं का पानी पिलाते-पिलाते अपना सुन्दर मुखचन्द्र दिखा कर पथिकों को लुभा लेना आदि सबका बड़ा स्वाभाविक वर्णन हुआ है । 32 इसी प्रकार सूर्योदय का वर्णन भी कवि ने बड़ा सजीव किया हैइय महु चिंततहो अरुणयरु, णवपल्लवु णं कंकेल्लितरु । उग्गमि दुमणि जणु रंजियउ, सिंदूरपुंजु णं पुंजियउ । अरुणायवत्तु ण णह सिरिहि, ण चूडारयणु उदयगिरिहि । लोहियालुद्धे जगु फाडियउ, ण कालि चक्कु भमाडियउ । कुंकुमपिंडु व दिसिकामिणिहिं, रतुप्पलु संझापोमिणिहिं 133