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अपभ्रंश-भारती-2
चला जाय और सौ वर्ष में भी यदि मिले तो भी हे सखि, सौख्य (प्रम) का स्थान वही रहता
अगलिअ-नेह निवट्टाहै जोअण लक्खु वि जाउ ।
वरिस-सएण वि जो मिलइ सहि सोक्खह सो ठाउ ।" फिर यह विरहव्यथित प्रिया अन्तर और अन्तराल के बाद लौटे हुए प्रिय से केवल मिलकर ही संतोष कर लेगी । बिल्कुल नहीं । उसे एक अकृत (अपूर्व) कौतुक करना होगा । उसे तो प्रिय के सर्वांग में ऐसे पैठ जाना है जैसे मिट्टी के कसोरे में पानी प्रवेश कर जाता है । अंग-प्रत्यंग में भीन जाता है ।
जइ केइ पावीसु पिउ अकिया कुड्ड करीसु ।
पाणिउ नवइ सरावि जिवै सव्वों पइसीस 120 अवश्य ही उपरोक्त प्रेम घनीभूत होगा । प्रिय में कोई दोष नहीं देख-सुन पायेगा । प्रिया सखी से कहती है कि यदि प्रिय कहीं सदोष दिखाई पड़ा हो तो मुझसे निभृत (एकांत) में ऐसे कहो कि उसका पक्षपाती मेरा मन न जान सके । पर ऐसा एकांत कहीं मिलेगा । अभिव्यक्ति कौशल का एक अद्भुत नमूना -
भण सहि निहुअउँ तेवें मई जइ पिउ दिदै सदोस ।
जेव न जाणइ मज्झु मणु पक्खावडिअ तासु ।1 यह कोई नयी बात नहीं है कि 'जब प्रीति गहराने लगती है तो दुर्जनों के मन में गाँठ पड़ने लगती है 22 । उन्हें दोष नज़र आने लगता है । वे गरजने लगते हैं । विरह के दिनों में तो ये और बिगडैल हो जाते हैं पर "अरे खल मेघ । अब मत गरज, देखता नहीं है कि लवण पानी में विलीन हो रहा है, वियोगदग्ध झोंपड़ा भीग रहा है और इतने दिन के विरह की मारी प्रिया आज प्रिय के प्रेमरस में सराबोर हो रही है" ।
लोणु विलिज्जइ पाणिएण अरि खल मेह म गज्जु ।
वालिउ गलइ सु झुम्पडा गोरी तिम्मइ अज्जु ।" प्रिय भी ऐसे ही क्षणों की प्रतीक्षा में अनेक मनोरथों को अपने मन में सैंजो रहा है कि 'दुष्ट दिन कैसे जल्दी समाप्त हो, रात कैसे शीघ्र आये । और वह अपनी चिर नवीन बहू को देख-सुन-मिल सके ।
केम समप्पउ दुटु दिणु किध रयणी छुडु होइ ।
नव-वहु-दसण-लालसउ वहइ मणोरह सोइ ।24 इसी प्रकार अब्दुल रहमान के 'सदेश रासक' तथा 'प्रबंध चिंतामणि' 'पुरातन-प्रबंध-संग्रह में मुंज-मृणालवती से संबन्धित दोहों में प्रेम, मिलन, विरह की बड़ी ही मार्मिक अभिव्यंजना हुई है। इनका उत्स लोग लोककथाओं में ढूँढ़ते हैं क्योकि इनकी लोकसंपृक्ति इतनी अधिक है कि इनकी उपमाएँ ही लोकाधारित नहीं हैं अपितु लोकजीवन के गहरे लगाव इसमें पूर्णतया समाहित हैं । 'संदेश रासक' की नायिका को इस बात का संकोच है कि प्रिय के विछोह की पीड़ा में वह अभी तक जिन्दा है । पर वह क्या करे । लोक-परंपरा जीवन्तता की प्रेरणा देती है । और फिर "यह क्या अच्छा काम होगा यदि धरोहर के रूप में अवस्थित प्रिय को, कष्टकारी विरह के कारण उसे छोड़कर सुरलोक (मृत्यु) चली जाऊँ" -