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विनयचंद्रकृत सुश्रावक छीतराष्टकम्
___ सं. श्री. भंवरलालजी नाहटा राजस्थान पुरातत्त्व मन्दिर स्थित श्रीहीरकलशगणिके संग्रह गुटके में कवि विनयचन्द्र कृत सुश्रावक छीतराष्टककी उपलब्धि हुई । इस प्रकारकी ऐतिहासिक कृतियां जैन साहित्यमें अपना विशिष्ट महत्त्व रखती हैं । इस अष्टकके नायक डेहनिवासी छाबड़ छीतर (मल) थे। अष्टकमें यह उल्लेख है कि इन्हें खरतरगच्छीय वा. हर्षप्रभके शिष्य हीरकलशने श्रावक बनाया था। इससे विदित होता है कि ये जन्मसे ओसवाल श्रावक नहीं थे। दिगम्बर सरावगी लोगोंमें छाबड़ा गोत्र है, संभवतः छाबड़ और छाबड़ा एक हो । ये छीतर श्रावक सुप्रसिद्ध और समृद्धिशाली थे। इन्होंने बीकानेर आकर श्रीजिनचंद्रसूरिजीको वन्दन किया तथा वहांके समस्त मन्दिरोंके दर्शन किये एवं जिनालयोंमें भक्तिपूर्वक पूजाएं करवाई। ये देवाधिदेव महावीरके चरणभक्त और श्रावकोंमें अग्रगण्य थे । इन्होंने हीरकलशगणिके वचनोंसे (आराधना) करके स्वर्गगतिको प्राप्त किया। ये स्वर्गमें रहते हुए भी अपने पाल्हा हेमा आदि परिवारवालोंको कल्याणकारी हों। इन्होंने अद्भुत धर्मशालाका निर्माण करवाया। ___इस गुटकेका अधिकांश भाग सं. १६२०-२५ के आसपास लिखित है। श्रीजिनचंद्रसूरिजी सं. १६१२ में आचार्यपद पाकर सं. १६१३ में बीकानेर पधारे थे अतः इन्हीं वर्षों में छीतर श्रावक हुए विदित होते हैं।
सं. १६२५ में हीरकलश गणिने अपने शिष्य हेमराज (हेमाणंद) सहित डेहमें चातुर्मास किया था और आषाढ शुक्ला ११ के दिन वा. साधुरंग कृत कर्मविचारसार प्रकरणकी प्रतिलिपि इस गुटके मेंकी थी यह कृति १७२ गाथा (श्लोक २१५)की प्राकृत भाषामें है।
और इसकी रचना ओसवाल सुश्रावक पाल्हाकी अभ्यर्थनासे की गई थी। इससे विदित होता है कि हीरकलश गणि कई वार डेह पधारे होंगे और श्रावकोंको धर्ममें स्थिर किया होगा। सं. १६२५ आषाढ सुदि ९ के दिन रचित श्रीनेमिनाथ इगवीस ठाण बत्तीसीकी अंतिम गाथा इस प्रकार है :
"देसइ सवालख मांहि नयरी डेहि प्रगट सुवास । संवत सोलह सइ पंचवीसइ सुदि आषाढ मास ॥ शनिवार नवमीय हीरकलशइ आणि अति उल्हास । इगवीस बोलहि कीयउ मोल हि नेमिजिन गुणरास ।। ३२॥"
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