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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यति जीवनविजयके सम्बन्धमें विशेष खोजकी आवश्यकता लेखक : श्री अगरचन्दजी नाहटा गुजरात काठियावाडमें रचे गये हिन्दी ग्रन्थोंमें " प्रवीणसागर" नामक विविध विषयक व्रजभाषा काव्यका महत्त्वपूर्ण स्थान है । राजकोटके राजा मेरामणसिंघने जेसो लांगो चारण, भारतीनंद सरस्वती, मुलानन्द साधु आदिके सहयोगसे इस ग्रंथका निर्माण सं. १८३८ में किया था। लोकप्रवाहके अनुसार जैन यति “जीवनविजय"का इस ग्रंथके प्रणयनमें उल्लेखनीय हाथ रहा है । सौराष्ट्रके सुप्रसिद्ध लोक-साहित्य सेवी स्व. झवेरचन्द मेघाणीने अपने "सौराष्ट्रनी रसधार "के प्रथम भागकी २२वीं वार्ता “कटारीनु कीर्तन "में प्रवीणसागरके छः रचयिताओंमें जैन यति जीवनविजय भी एक थे, लिखा है। श्रीगोकलदास द्वारकादास रायचुराके 'काठियावाडनी लोकवार्ताओ' के दूसरे भागकी दूसरी वार्तामें जीवनविजयके लोक-प्रवादको बडे सुन्दर रूपमें औपन्यासिक ढंगसे १२ पृष्ठोंमें दिया है। उसके अनुसार जब " प्रवीणसागर "की रचना हो रही थी तो अन्य रसोंके सुलेखक कवि तो उसके प्रणयनमें सम्मिलित हो गये पर शृङ्गार रसका कोई विशिष्ट लेखक महाराणा मेरामणसिंघको नहीं मिला। जेसा चारणको इसकी खोजके लिए विशेष रूपसे कहा गया तो उसने बडी तत्परतासे शोधकर उसके योग्य कवि “जीवनविजय "को बतलाया। मेरामणसिंघको बडा आश्चर्य हुआ कि एक ब्रह्मचारी जैन यति जो ४ युगसे योग साधना कर रहा है, शृङ्गारिक काव्य इतना स्वच्छ कैसे लिख सकेगा? पर जेसा चारणने उनको विश्वास दिलाया कि एक योगी पुरुष ही शृङ्गारका सबसे अच्छा वर्णन कर सकता है केवल उसकी रूचिको घुमाने भर की आवश्यकता है । मेरामणसिंघने जीवनविजय शृङ्गारिक कविता बनाना कैसे स्वीकार करेंगे ? क्योंकि उनसे पहिले ही पूछ लिया गया है और उन्होंने इन्कार कर दिया है, इस समस्याका समाधान पूछा, तो जेसा चारणने बतलाया कि इसका उपाय भी मैंने सोच रखा है । लवंगीका नामक नर्तकी द्वारा जीवनविजयको आकर्षित करना होगा। महाराजाने कहा, एक ब्रह्मचारीका पतन अपने स्वार्थके लिए करवाना भी उचित नहीं है। जेसाने कहा, बात तो ठीक है, पर अन्य कोई उपाय भी तो नहीं है । जीवनविजयके सिवाय मेरी नज़रमें अपने उस ग्रंथ निर्माणके महान् प्रयत्नमें जो कमी रह जाती है उसको पूर्ति करवेवाला अन्य कोई नहीं है। मैंने उनके ब्रह्मचर्यके बचावके लिए लवंगीसे यह बचन ले लिया है कि " सांप भी मर जाय और लाठी भी न टूटे," इस तरहका प्रयत्न किया जाय जिससे जीवनविजयको वह आकर्षित तो करे पर पतनके एन प्रसंगमें अपन लोग उपस्थित होकर बचाव करते हुए अपनी ग्रंथ रचनामें सहयोगकी स्वीकृति भी प्राप्तकर लें । महाराजा यह प्रस्ताव सुनकर बडे प्रसन्न हुए, For Private And Personal Use Only
SR No.521739
Book TitleJain_Satyaprakash 1956 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1956
Total Pages28
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size11 MB
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