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सं. १५३५ में कीर्तिरत्नसूरिके शिष्य शांतिरत्न, वीरमपुरमें पधारे थे, और जिनचंद्रसूरिने उन्हें वहाँ आचार्यपद देकर गुणरत्नसूरि नाम प्रसिद्ध किया। यह गुणरत्नसूरि विवाहलेसे ज्ञात होता है । वीरमपुर नाम प्रसिद्ध होजाने पर भी इसका पुराना नाम महेवा नगर भुलाया नहीं गया । फलतः आज तक भी इस नामकी प्रसिद्धि बराबर मिलती है।
नाकोड़ा नाम मेरे ख्यालसे पार्श्वनाथजीकी इस चमत्कारी मूर्ति के सम्बन्धित है, स्थानसे सम्बन्धित नहीं। इसीलिये जब यह मूर्ति मूलनायकके रूपमें यहाँ स्थापित हुई तभीसे नाकोड़ा पार्श्वनाथ तीर्थ प्रसिद्ध हुआ। इस मूर्तिकी यहाँ स्थापनाका समय निश्चितरूपसे तो नहीं कह सकता, पर सं. १५५० और १६०० के बीचमें ही इसकी स्थापना होना संभव है। विशालविजयजीने महिमासमुद्र रचित महेवानगर स्तवनकी ६ पंक्तियाँ पृष्ठ १८ में उद्धृत की हैं। उसके ऊपर जीर्णोद्धारकका नाम इन पंक्तियों में होना बतलाया है पर उद्धृत पंक्तियों में जीर्णोद्धारका सूचन न होकर जिनमूर्तियोंके बनाने (भराने )का ही उल्लेख है। इस स्तवनकी पूरी प्रतिलिपि भेजनेके लिये मुनिश्रीजीको दो पत्र दिये पर उसके प्राप्त न होनेके कारण यहाँ विशेष प्रकाश न डाला जा सका।
पृष्ठ २५ के सं. १६४७ के शिलालेखमें “वीरमजी आशाढ वदी आठमको पाट बैठे" लिखा है, यह विचारणीय है। या तो ये रावल बीरम दूसरे होंगे या लेख पढने में कुछ गड़बड़ी हुई है।
वीरमपुर-महेवाका शांतिनाथ जिनालय तो आज भी विद्यमान है ही। इसका एक मंडप सं. १६१४ में बनाया गया जिसका लेख पृष्ठ २२ में छपा है।
तीसरे मंदिर विमलनाथ प्रासादका निर्माण १७ वीं शताब्दिमें ही हुआ है । सं. १६६७ के लेखमें " श्रीविमलनाथप्रासादे" शब्द मिलता है।
मुनि दर्शनविजयजीने पल्लीवाल जैन जातिका इतिहास (प्र० धर्मरत्न अंक ४-१२) में नाकोड़ा तीर्थको पल्लीवालोंका तीर्थ बतलाया है, पर वह सही नहीं है। कुछ शिलालेखोंमें " पल्लिवाल गच्छ "का नाम आ जानेसे ही यह तीर्थ पल्लिवालोंका नहीं हो जाता। उनके उपर्युक्त कथनके विरोधमें उन्हीं दिनों मैंने एक लेख 'नाकोड़ा पार्श्वनाथजी क्या पल्लीवाल तीर्थ है ?' लेख लिखा था जो अप्रकाशित अवस्थामें मेरे पास पड़ा है।
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