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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७४] શ્રી. જેને સત્ય પ્રકાશ [१र्ष : २० नहीं रही । मेरे इस मतका आधार यह है कि सं. १५२५में यहीं स्वर्गस्थ होनेवाले खरतरगच्छाचार्य कीर्तिरत्नसूरिके शिष्य कल्याणचन्द्रने 'कीर्तिरत्नसूरि विवाहला' और 'कीर्तिरत्नसूरि चौपाई ' बनाई, उसमें इन सूरिजीका जन्म सं. १४४९ में महेवेमें होनेका उल्लेख करते हुए लिखा है " देश मरुमंडलं, खहिज अति उज्जलम् , महिम हेलई भासंति भालम् तिलकु जिम सोहए बहुय जण मोहर, तिहां महेवापुरे विशालं ॥ ३ ॥ लोग धनवन्त गुणवन्त सुविशाल निकामिणी गढमढा वास सत्थं । दीसई जणपुर जण पुरन्दरपुरं, भोगयं भरहसिरी दंसणत्थं ॥ ४ ॥ संती जिण वीरजण न(भ)वण धयवड़ मिसिण, तज्जुयन्तो परमं मोहसत्तुं । साहू जिण भणिय गुण अणदिणं गाजए राज राउपिण धम्मभत्तुं ॥५॥" चौपाइमें " महिमंडल पयड़उ घणरिद्धि, नयर महेवउ नर बहुबुद्धि । " अर्थात् मरुदेशके महेवापुरमें शांतिनाथ और महावीरके दो जिनालय थे । इन कीर्तिरत्नसूरिको सं. १४८० में जिनभद्रसूरिने इस मेहवेमें ही उपाध्याय पद दिया था। वहाँ तक तो इस नगरका नाम महेवा ही था, यह विवाहला व चौपाईसे सिद्ध होता है। तदन्तर सं. १५२५में यहाँ इन सूरिजीका स्वर्गवास हुआ, उस प्रसंगका उल्लेख करते हुए विवाहला और चौपाइमें स्थानका नाम 'वीरमपुर' दिया है, उससे १५२५ से पूर्व यह नाम प्रसिद्ध हो गया, सिद्ध होता है । पर कब हुआ ? इसकी थोड़ी जांचकर लेनो ठीक होगी। जैसा मैंने ऊपर बतलाया है सं. १५१२ के लेखमें रावल वीरमके विजयराज्यका उल्लेख मिलता है। और इसी वीरमके नामसे वीरमपुर प्रसिद्ध हुआ, अतः सं. १५१२के कुछ पूर्व ही यह नगर वीरमने अपने नामसे महेवाके पास बसाया या। महेवाका ही नाम पलटकर वीरमपुर कर दिया । सं. १५०९ के पूर्व वीरमपुर नाम प्रसिद्धिमें आ गया था, यह जैन सत्यप्रकाश वर्ष १६ अंक १ में प्रकाशित स्वर्णाक्षरी कल्पसूत्रकी प्रशस्तिसे स्पष्ट है । (सं. १५०९ वर्षे श्रीवीरमपुरे कृतज्ञानपंचम्युद्यापनोत्सवैः ।) अतः मेरी रायमें सं. १४८० के बाद और सं. १५०९ के बीच ही महेवेका नाम या महेवेके संलग्न नया नगर बसाया, उसका नाम रावल वीरमके नामसे वीरमपुर प्रसिद्ध हुआ होगा । अनेक राजाओंने अपने नामसे गाँव, नगर बसाये या पुराने स्थानोंका अपने नामसे नया नामकरण कर दिया, इसके एक नहीं सेकडों उदाहरण मेरी जानकारीमें हैं। For Private And Personal Use Only
SR No.521717
Book TitleJain_Satyaprakash 1955 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1955
Total Pages28
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size12 MB
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