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શ્રી. જૈન સત્ય પ્રકાશ
२४ ] [ वर्ष : २० पूर्वार्द्धका परिमाण ६००० के करीबका बैठता है । हमारे संग्रहकी उतरार्द्ध की प्रतिमें १५०० श्लोक करीब हैं। इस प्रकार पूरी प्रतिका परिमाण ७५०० श्लोकका होता है। महिमाभक्ति भंडारकी प्रतिमें ग्रंथकारको ' बृहद्गच्छीय' लिखा है, वटगच्छीय, बृहद्गच्छ और बड़गच्छ तीनों एकार्थक है । प्रशस्ति इस प्रकार है:
" इति श्रीबृहद्गच्छे वाचक श्रीविनय सुन्दरशिष्य - मेघरत्नविरचितायां सारस्वतदीपिकायां तद्धितप्रकरणार्थः ॥
लेखन पुष्पिका - सं० १६०५ वर्षे कार्तिक सुदी ११ दिने थावरवारे श्रीबृहत्खरतरगच्छे श्रीजिनमाणिक्यसूरिविजयराज्ये || वा० श्रीक्षेमकीर्त्तिसद्गुरोस्तेषां शिष्य वा० श्रीक्षेमराजमहोपाध्यायमिश्रास्तेषां विनयाणूनां वा० श्रीदयातिलकगणिः, तच्छिष्यः प्रमोदमाणिक्यगणिः, तच्छिष्यः पंडितपद्ममंदिरमुनिः, पं. गुणदंगमुनिः, पं. दयारंगमुनिः, चिरंजीवी जेसिंघकृते प्रतिरियं लिखिता स्वपरोपकाराय || शुभं भवतु । लेखपाठकयोः कल्याणं भवतु ॥ श्रीविनादेसरमध्ये श्रीकुन्थुनाथप्रसादात् || शुभं भवतु | कुंवर - श्रीरतनसीविजयराज्ये श्रीपार्श्वनाथप्रसादात शुभं भवतु । श्रीजिनकुशलसूरिप्रसादात् शुभं कल्याणं कुरु कुरु वाचकानाम् ॥
"
प्रति खरतरगच्छकी लिखी हुई है और लेखकने ग्रन्थकारको बृहद्गच्छीय बतलाया है । अतः संदेह की कोई गुंजाईश नहीं । प्रति जैसिंहके लिये लिखी गयी है। संभव है इसके पूर्व 'चिरं' शब्द होने से उनकी उस समय दीक्षा नहीं हुई होगी, छोटी ही उमर होगी पर ये जैसिंह आगे चलकर बहुत बड़े विद्वान हुए हैं। उनका नाम जयसोभ उपाध्याय था । ' कर्मचन्दमंत्रिवंशप्रबंध, पौषधपत्रिंशिका, प्रश्नोत्तर' आदि ग्रन्थ प्राकृत, संस्कृत और राज - स्थानी तीनों भाषाओं के उपलब्ध हैं। अपने समयके खरतरगच्छीय विद्वानों में यह बड़े गीतार्थ माने जाते थे । इनके शिष्य महोपाध्याय गुणविनय और प्रशिष्य मतिकीर्त्ति भी अच्छे विद्वान थे ।
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इस विद्वत् परंपराका परिचय हमने अपने 'युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि' और 'नेमिदूतकाव्यशक्ति ' की प्रस्तावना में दिया है । ' सारस्वतदीपिका की एक प्रति अनूपसंस्कृत पुस्तकालय, उज्जैन के यति प्रेमविजयजी के संग्रहमें और भांडारकर इस्टीट्यूट (पूना) में भी है स्व० मुनि हिमांशुविजयजीने इसके मंगलाचरणके श्लोक आदि उद्धृत करते हुए 'प्राचीन ग्रन्थ परिचय ' शीर्षक लेखमें इस वृत्तिका परिचय दिया है । आपने लिखा है- यह वृत्ति बहुत सुन्दर और विशद हैं,' अतः इसके प्रकाशन होने से जैन और जैतनेर सभी व्याकरण के विद्यार्थियों को बड़ा लाभ हो सकेगा । [ क्रमश: ]
१. कातंत्र के बाद सारस्वत व्याकरणका जैन समाज में बड़ा प्रचार रहा है । इस पर १०-१२ टीकाएँ जैन विद्वानों द्वारा बनाइ हुइ उपलब्ध है जिनमें मेघरत्नकी दीपिका सबसे प्राचीन है । इसके परवर्ती चंद्रकीर्तिसूरि- टीका तो कुछ प्रसिद्ध है, जिसके जैनेतर संस्थाओंने कई संस्करण निकाले हैं ।
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