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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir म : १] स्त२सा यत्र सधी....थ [२३ चाहिए, सोचकर अन्य एक दिन जाकर उसके नोट्स ले आया जिसे पाठकोंकी जानकारीके लिये यहाँ प्रकाशित किया जा रहा है। प्रति-परिचय-प्रस्तुत ग्रन्थकी प्रति १२ पत्रों की है, जिनमें से पहले दो पत्रोंमें मूल संस्कृत ग्रंथ ३८ श्लोंकोंमें है। अवशेष १० पत्रोंमें पहले मूल श्लोक फिर उसकी संस्कृत टीकाऔर तदनन्तर राजस्थानी भाषामें स्पष्टीकरणरूप भाषाटीका है । प्रारंभिक दो पत्रोंमें मूल ग्रंथ ४९ पंक्तियोंमें लिखा हुआ है और प्रतिपंक्ति ४२के लगभग अक्षर हैं । अवशेष १० पत्रोंमें प्रति पृष्ठ १४ पंक्तियां और प्रति पंक्ति ४० अक्षर हैं। प्रति संवत् १६००के चैत वदी ८ रविवारको लिखी गयी है, आगे पुष्पिकालेख पर हरताल फिरी होनेसे अक्षर दब गये हैं, अतः पढ़े नहीं जा सके। ____ उस्तरलाव शब्दका अर्थ ग्रंथके नाम उस्तरलावके संबंधमें अनुसंधान करने पर उर्दूहिन्दी कोषमें वह ' उस्तुरलाव' और उसका अर्थ 'नक्षत्र यंत्र' लिखा मिला है । ( उस्तुरलावसंज्ञा स्त्री० (यू०) नक्षत्र) विशेष जानकारी अपेक्षित है। ग्रंथकार-ग्रंथकारने प्रारंभिक दो श्लोकोंमें अपना नाम 'मेघरत्न' दिया है । इसके अतिरिक्त उसके गच्छ, गुरु, और रचनासमय आदिके संबंधमें कुछ भी जानकारी इस ग्रंथमें नहीं दी गयी है, पर कुछ वर्ष पूर्व इन्हीं ग्रंथकार द्वारा रचित 'सारस्वत-प्रक्रिया-व्याकरण'की दीपिका टीका उपलब्ध हुई थी जिससे तीनों बातोंका पता चल जाता है । सारस्वत दीपिकाकी प्रतियों तो कई उपलब्ध हुई हैं पर इनमें से अधिकांश प्रतियां पूर्वार्धकी हैं, अतः उनमें रचनाकाल और गच्छका निर्देश नहीं पाया जाता, उनसे तो केवल ग्रंथकारके गुरुका नाम विनयसुन्दर था यही पता चलता है, पर हमारे संग्रहमें इसके उत्तरार्थकी एक प्रति उपलब्ध है जिससे ये बड़गच्छीय थे और इस दीपिकाकी रचना संवत् १५३६ में हुई है, निश्चित होता है, प्रशस्ति श्लोक इस प्रकार है --- " विनयसुन्दरं सच्चरणाम्बुजप्रवरेणुप्रवित्रितमस्तकः । विदधे स्म च मेघ इमं, मुदा ऋतुगुणेषु शशांककः ।।। इति श्रीवटगन्छाम्बुजाकरविकासनदिनकरश्रीविनयसुन्दरशिष्यमेघरत्नविरचिता सारस्वत -दीपिका संपूर्णम् (D)॥ जिनरत्नकोषके पृष्ठ ४३४में इस टीकाका नाम ' टुंढिका' और ग्रंथकर्ताको बृहत्खरतरगच्छीय होना बताया है । ग्रंथका परिमाण भी उसमें ४५०० श्लोकका होना बताया गया है, पर टोक नहीं है। उपरोक्त प्रशस्तिसे उनका गच्छ, 'वटगच्छ' निश्चत ही है। ग्रंथके परिमाणके संबंधमें मैंने इसकी प्रतियोंका निरीक्षण किया तो पूर्वार्द्ध की सबसे प्राचीन प्रति संवत १६०५की लिखी हुई महिमाभक्ति भंडारमें उपलब्ध हुई। उसके पत्र १०९ हैं। प्रति पृष्ठ १६ पंक्तियां और प्रति पंक्ति करीब ५६ अक्षर हैं, जिसकी गणना करनेसे For Private And Personal Use Only
SR No.521715
Book TitleJain_Satyaprakash 1954 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1954
Total Pages30
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size14 MB
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