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भर १०]
સિદ્ધાચલ ગજલ समरण करे नित सेवाक् , माला गुणत नित मेवाक, दयावंत वडा दा(ता)र , दिन दिन होते देदेकार, जाचक करत जै जैकार, दोलतवंत हे दरबार षाग त्याग वैदु सोभागू , गुनीअन करत हे रंगराग नोबत रणकती गाजैक्, तांसा खूबसे वाक् न्माई निपुण राजान् , सबको देत दे सन्मान, वाजा बजत हे पेंतीस, वसते भलै पौन छत्तीस आगे बसत खूब बजार, हाट घूब लंबी हार. द (-दी ? ) वड़ा जैनका देहराक, सिघवि पूजत सवेराक् पूजा होत भली मंत् , पासे ध्रमसाल ही दीसंत प्रभूको मंडते मंडार, सिलावट घड़ता हे षकार वास्तुक ग्रन्थका हे ग्यांन, देहरे बिम्ब करते मान. कारीगर करत कारषानेक, किडीये रहत भी कानैक, सदावत देत हे शुभकार, अजब उपासरे हे च्यार. झरोषाबंध हे ध्रमसाल, सिंघके लोक रहे केई काल, बीच बजार वधते वान् , साधु रहत हे सुभ थान. जोहरी नाणांवटी बजाजू , कपडे डेचते सुभ काज, सोना घड़त हे सोनार, लोहा कसहे लोहार. हिमत बडी हलवाईक, सुषडी करत सुखदाईक, नवले वसत नव नारुक्, केई वसत हे कारुक. सिबके देहरा साबूत, आरत करत हे अद्भूत, महजत एक फुन पंचपोर, नालेर चड़त हे उन तीर. वांभण वेहेदीए दरवेस, दरसण-पट हे सुविसेस, गढकी पोल हे तहा च्यार, बुरजे तोप बहुत ही सार पादर बहुत वन-वाडीक जल नय वहते जारीक, जाडीक पाणी भरत हे पनहारीक, निरमल नीर भर झारीक. पूषडी नीर घूसकारीक, ठाढी छाहि अति प्यारीक, आवे सिध कोई जात, सिद्धागिर भेटके सुष थात. सुणही तिथ हे सिरताज, गुणवंत बहुत हे गिरराज, गिरवर नम्या जसडंकाक, तेहने नहीं दिन बंकाक. संवत् अढार चोसठेक, भाद सुद चहुदसी सीत ठेक, कोनी गजल दोलत होत, चित्तसें धार अषर समेत जे भणे तस हर्षे हुत, सदा सुष होइ सुष लहत् खरतर जती हे सुप्रमाण, कवी यु कहत हे कल्याण.
॥ इतिश्री सिद्धाचल गजल सम्पूर्ण ॥
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