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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यति श्रीकल्याण रचित सिद्धाचल गजल संपादक :- पू. मुनिराज श्रीकान्तिसागरजी ग्वालियर गजल साहित्य-हिन्दी राजस्थानी नगर वर्णनात्मक साहित्यकी सजन-परम्पराका सूत्रपात जैन विद्वानोंकी मौलिक देन है । जैन समाजका इतिहासप्रेम विख्यात रहा है। त्यागीवर्गने पारलौकिक चिन्तनमें लौकिकताकी पूर्णतः उपेक्षा नहीं की । विकास वैयक्तिक होते हुए भी उसमें युगका भाग भी कम नहीं होता । हम बहुधा जहाँ आध्यात्मिक विकासकी बातें दोहराते हैं वहाँ सामाजिक तत्त्व और परिस्थितियों का प्रायः विस्मरण कर देते हैं। अन्तर्मुखी दृष्टिके परिपक्क हो जानेसे कोई भी वस्तु वैयक्तिक साधनामें बाधक न बनकर साधक ही बन जाती है। इसीलिये साहित्यके निर्माणमें जैनोंने बहुत ही उदारताका या सहिष्णुनाका सुपरिचय दिया है। गजल साहित्य भी औदार्य और व्यापक दृष्टिकोणका परिणाम है । गजलकी महत्ता और उसके सार्वभौमिक विकास पर मैं स्वतंत्र ग्रन्थ हो लिख चुका हूँ जो शीघ्र ही मुद्रणालयमें जायगा। यहाँ पर मैं शोधक-विद्वानोंका ध्यान इस विषय पर आकृष्ट करना चाहता हूँ कि वस्तुतः गज़लके रचयिताओंके उत्प्रेरक कौनसे तत्व हैं। बिना आवश्यकताके आविष्कार असंभव है। अभी तक हमारी सबकी यही मान्यता थी और आज भी है कि जिस प्रकार पुराने दैवी चमत्कारिक या पुनित तीर्थस्थानोंकी कीर्तिको अमरत्व प्रदान करने और जनताको इस ओर आकृष्ट करनेके लिए माहात्म्य संज्ञासे साहित्य सर्जित हुआ जो केवल श्रद्धा पर आधृत था और आज भी है । इस प्रकारकी परम्पराका नवीन संस्करण गजल साहित्य है, किन्तु यहाँ प्रश्न यह उपस्थित होता है, केवल माहात्म्यके रचयिताओं को ही गजल साहित्यसृष्टाओंका प्रेरक कैसे मान लें ? कारण कि पूर्व परम्परा पर्याप्त प्राचीन है और गजल अर्वाचीन-अर्थात् १७ वीं शतीमें ऐसी कृतियोंका सूत्रपात हुआ। यदि केवल माहात्म्यसे ही प्रेरणा पानेका प्रश्न था तो तत्पूर्वकालमें मौन क्यों रहे जब कि मुगलोंका संसर्ग हो चुका था, भारतीय साहित्य पर भी उनका प्रभाव पड गया था। बहुत दिनोंसे मनमें विचार कर रहा था कि उस समय (जब गजलोंका निर्माण प्रारंभ हुआ) अवश्य ही कोई न कोई राजनैतिक या सामाजिक परिस्थितियाँ ऐसी रही होंगी जिनकी प्रेरणाका परिणाम गजल साहित्यके रूपमें हुआ। अभी अभी ग्वालियर आने पर “ चकत्ताकी-परम्परा" नामक एक मूल्यवान् इतिहास कोशके अवलोकनका सौभाग्य प्राप्त हुआ। निःसंदेह इसकी उपादेयता सभी दृष्टि से है। For Private And Personal Use Only
SR No.521712
Book TitleJain_Satyaprakash 1954 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1954
Total Pages28
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size11 MB
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