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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नारोह, भाटीया लोहाणा, खोजा, कसारा, भाट भोजक, गंधर्व, व्यास, चारण, तथा अन्य जातिके याचर्कोको एवं लाडिक, नाउक, सहिता, धूइआ तीनो प्रकारके कणबी, सतूआरा, भणसालो, तंबोली, माली, मणियार, भडभूजे, आरुआ, लोहार, सोनी, कंदोई कमाणगिर, धूधू, सोनार पटोली गांची, छीपा, धोबी, हजाम, मोची, भिसाइत, बंधारा, चूनारा, प्रजापति, आदि सभी वर्णके लोगोंको पक्वान्न भोजन द्वारा संतुष्ट किया । अब कवि हर्षसागर राजड़ शाहकी कीर्तिसे प्रभावित देशोंके नाम बताते हैं। जिस देशमें लोग अश्वमुखा, एकलपगा, श्वान-वानरमुखा, गर्दभखगा तथा हाथीरूप, सूअरमुखा तथा स्त्रीराजके देशमें, पंच भर्तारी नारीवाले देशमें, राजड साहके यशको जानते हैं। सिर पर सगड़ी, पैरोंमें पावड़ी तथा हाथसे अग्नि घडीभर भी नहीं छोड़ते ऐसे देशमें, चीन-महाचीन, तिलंग, कलिंग, वरेश, अंग, बंग, चितौड़ जेसलमेर, मालवा, शवकोट, जालोर, अमरकोट, हरजम, होगलाज, सिंध-ठठा, नसरपुर, हरमज, बदीना, आदन, बखुस, रेडबाही, कनड़ी, बीजापुर, खंभात, अहमदाबाद, दीव, सोरठ, पाटण, कच्छु पंचाल, वागड़, हालाहर, हरमति इत्यादि देशोंमें विस्तृत कीर्तिवाला राजड़ साह सपरिवार आनंदित रहे। स. १६९८ में विधिपक्षके मेरुतुंगसूरि-बुधमेरु-कमलमे-पं. भीमाकी परंपरामें उदयसागरके शिष्य हर्षसागरने इस रास-प्रबंधकी वैशाख सुदि ७ सोमवारके दिन रचना की। सरिआदेके रासका सार साह राजड़ के संघके बाद किसीने संघ नही निकाला। अब सरीयादेने साह राजड़के पुण्यसे गिरनारतीर्थका संघ निकाला और पांच हजार द्रव्यव्यय कर सं. १६९२ के अक्षयतृतीयाके दिन यात्रा कर पंचधार भोजनसे संघकी भक्ति की । रा. मोहनसे नागड़ा चतुर्विधकी उत्पत्तिको ही पूर्वाश्रापके अनुसार पुत्री असुखी तथा जहां रहेंगे खूब द्रव्य खरचके पुण्य कार्य करेंगे व तीनोंको तारेंगे। सरियादेने सं. १६९२ में यात्रा करके मातृ पितृ व श्वसुर पक्षको उज्ज्वल किया। उसने मातप क्षमणस पूर्ण करके छ'री पालते हुए आबू और शत्रुजयकी भी यात्रा की। ३०० सिजवाला तथा ३००० नर-नारियोके साथ जुनागढ गिरनार चढी। भाट, भोजक, चारण आदिका पोषण किया, फिर नगर लौटी। इनके पूर्वज परमारवंशी रा. मोहन अमरकोटके राजा थे जिन्हें सद्गुरु श्रीजयसिंहमूरिने प्रति बोध देकर जैन बनाया था। कर्मयोगसे इनके पुत्रपुत्री नहीं थे। आचार्यश्रीने इन्हें मद्य, मांस और हिंसा त्याग करवाके जैन बनाया। गुरुने इन्हें आशिस दी जिससे इनके ८ पुत्र हुए पांचवा नाग हुआ। बाल्यकालमें व्यतरोपद्रवसे बालक डरने लगा। बहुतसे उतारणादि किये बादमे एक पुरुषने प्रकट होकर नागसे नागडा गोत्र स्थापित करनेका कहा और सब कामोंकी सिद्धि हइ। राणादेके रासका सार राजड़ साहने स्वगसे आकर मानवभवमें सर्व सामग्री संपन्न हो बड़े बड़े पुण्य कार्य किये। अपनी अागिनी राणादेके साथ जो सुकृत किये. अपार हैं उसने स्वधर्मीवात्सल्य करके ८४ ज्ञातिबालों को जिमाया। इसमें सतरह प्रकारकी मिठाइयां-जलेबी, पेंडा, बरफी, पतासा, गेबर दूधपाक, साकरियाचना, इलायची पाक, मरकी, अमृती, मोतीचूर, साळूणी इत्यादि तैयार किये गये थे। ओसवाल, श्रीमाळी आदि महाजनोंकी स्त्रियां भी जिमनवारमें बुलाई गयी थी। इन सबको भोजनो. परान्त पान, लवंग, सुपारी, इलायची, आदिकी मनुहारकी केसर, चंदन, गुलाबके छांटणे देकर श्रीफलसे सत्कृत किया गया था। भाट-भोजक व चारण आदि याचकजनोंको भी जिमाया तथा दीन . हीन व्यक्तियोंको प्रचुर दान दिया। राणादेने लक्ष्मीको शुभ कार्योंमें व्यय कर तीनों पक्ष उज्ज्वल किये। For Private And Personal use only
SR No.521710
Book TitleJain_Satyaprakash 1954 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1954
Total Pages28
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size12 MB
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