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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir શ્રી જેન સત્ય પ્રકાશ मुजपुर, कोठारे, साहस, मुजनगर, सिन्ध-सामही बदीना, सारण अमरपुर, नसरपुर, फतेबान, सेवाणस, उच्च, मुलतान देराउर, सरवर रोहली, गौरगढ़, हाजीखानदेरा, संढला मिहरुक, सलाबुर, लाहोर, नगरकोट. बीकानेर, सरसा, भटनेर, हाँसी, हंसार (2) उदिपुर, खीमसर, चित्तुर, अजमेरि, रणथंभर, आगरा, जसराणा, बडोदे, तजारे, लोद्राणी, खारड़ी सामोसण, महीआणी. मोरे, बरड़ी, पारकर, बिहिराणे, सातलपुर, बहुइवारु, अहिब लि, वाराही, राधनपुर, सोही, वाव, थिराद्रे, सूराचंद, राडग्रह, साचोर, जालोर, बाहड़मेर, भाद्रेस, कोटई, विशाले, शिवव डी, समीयाणे, जसुल, महेवा, भाशणकोट, जेसलमेर, 'पहुकरण, जोधपुर, नागौर, मेड़ता. ब्रह्माबाद, सकन्द्राबाद, फतेपुर, मेवात, मालपुरा, सांमानेर, नडुलाई, नाडोल, देसूरी, कुंभलमेर, सादड़ी, भीमावाव, कुभलमेर, सादड़ी, राणपुर, खिखे, गुंदवच, पावे, सोझित, पाली, आउवा, गोढे, रोहीठ, जितारण, पदमपुर, उसीआ, भीनमाल, भमराणी, खांडप, धणसा, वाघोड़े, मोरसी, ममते, कुंकती नरता, नरसाणू , त्रूमड़ी, गाडूड, आंबलीआल, झारली, सीरोही, रामसण, मंडाहड़, आबू , बिहिराणे, ईडरगढ, वीसलनगर, अणहलपुरपाटण, स्मूहंदि, लालपुर, सीधपुर, महिसाणा, गोटाणे, वीरमगाम, संखीसर, मांडल, अधार, पाटड़ी, बजाणे, लोलाड़े, घोलका, धंधूका, वीरपुर, अमदावाद, तारापुर, मातर, बड़ोदरा, बॉमरि (?), होसुट, सूरति बरान, जालणं, कंतडी, बीजापुर, खडकी, मांडवगढ, दीवनगर, घोघा, सरवा, पालीताणा, जूनागढ़ देवकापाटण, ऊना, देलवाडा, मांगलर, कूत्तीआणे, राणावाव, पुर, मीआणी, भणवद, राणपर, भणगुरे, खंभावीए, वीसोतरी, तथा मांदिके गोठी महाजन व झोखरिके नागडावंशी जो राजस्के निकट कुटुंबी हैं तथा छीकारीमें भी लाहण बांटी। महिमाणे, कच्छी ओसवालों में हालीहर, उसवरि, तसूए, गढकानो, तीकावाहे, कालावड़े, मलूआ, होणमती, भणसारणि इत्यादि कच्छके सभी गांवों में अंचलगच्छीय महाजनोंके घर लाहण वितीर्ण की। राजड़के भ्राता नैणसी तथा उसके पुत्र सोमाने भी बहुतसे पुण्य कार्य किये। राजड़के पुत्र कर्मसी भी शालीभद्रकी तरह सुन्दर और राजमान्य थे। इन्होंने विक्रमवंश-परमारवंशको शोभा बढाई। शत्रुजय पर इन्होंने शिखर (-बद्ध जिनालय) बनव या। वीरवंशवाणे सालवीउडक गोत्रके पांचसौ घर अणहिलपुरमें तथा जलालपुर, अहिमदपुर, पंचासर, कनी, वीजापुर आदिस्थानों में भी रहते थे। गजसागर, भरतऋषि तथा श्रीकल्याणसागर सरिने उपदेश देकर प्रतिबोध किया। प्रथम यशोधन शाखा हुई। नानिग पिता और नामलदे माताके पुत्र श्रीकल्याणसागरने संयमत्रीसे विवाह किया वे धन्य हैं। इन मुरुके उपदेशसे लाहण भी बांटी गयी तथा दूसरेभी अनेक पुष्य प्राप्त हुआ। अब राजसाहने द्वितीय प्रतिष्ठाके लिए निमित्त गुरुश्रीको बुलाया। सं. १६९६ मिती फाल्गुन शुक्ला ३ शुक्रवारके दिन प्रतिष्ठा संपन्न हुई । उत्तर दिशिके द्वारके पास विशाल मण्डप बनाया। चौमुख छत्री व देहरी तथा पगथियां बनाये । यहाँसे पोले प्रवेश कर चैत्यप्रवेश होता है दोनों और ऐरावण गजों पर इन्द्र विराजमान किये । साह राजड़ने पुत्र पौत्रादिकयुक्त प्रचुर प्रतिष्टाके प्रसंगसे साह राजसोने नगरके समस्त अधिवासी बालगोपालको भोजन कराया। प्रथम बालगोंको दस हजारका दान दिया व भोजन कराया । नाना प्रकारकी भोजनसामग्री तैयार की गाई थी। इन्हों चतुर्थव्रत ग्रहण करनेके प्रसंग पर भी समस्त महाजनोंको जिमाया। पर्युषणके पालेका भोजन तथा साधु साध्वीए, चौरासी गच्छके महात्मा महासतियोंको दान दिया । छत्तीस Teी लोगोंको जिमाया । फिर खत्रधार. शिळाव, सुधार, क्षत्री, अवाक्षत्री, भावसार, राजगरोस, For Private And Personal Use Only
SR No.521710
Book TitleJain_Satyaprakash 1954 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1954
Total Pages28
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size12 MB
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