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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir અંકઃ ૧ર ] ઉપા. વિવેકસમુદ્રવિરચિત નરવર્મચરિત્ર [ ૨૩૧ ज्ञानभंडार-सूरतसे इस कथानकको सं. २००१ में प्रकाशिक कर दिया है । इस ग्रन्थकी रचना संवत १३३४ प्रथम कार्तिक पूर्णिमाके दिन जेसलमेरमें हुई थी, इसकी पद्यसंख्या ३४२ है। इतः पूर्व उमेदपुर प्रतिष्ठामें भाग लेकर आगरा जाने पर श्रीयुत काकाजी अगरचंदजीने श्रीविजयधर्मसूरि-ज्ञानमंदिरमें आपके — नरवर्मचरित की प्राचीन प्रति देखी थी। जेसलमेर भंडारमें उक्त ग्रन्थकी प्रति अपूर्ण थी अतः यह प्रति अत्यन्त महत्त्वपूर्ण प्रतीत हुई। अतः सं. २००२में अपने हथरस फर्मके निरीक्षण-प्रसंगसे आगरा जाना हुआ और उस प्रतिको निकलवा कर आदि, अंत, प्रशस्ति आदि नकल कर ली गयी। इस ग्रंथका अपर नाम सम्यक्त्वालंकार है । जेसलमेर भंडारकी सूचीमें पं. हीरालाल हंसराजकी सूचीके अनुसार प्रस्तावना पृ. ५३ में उल्लेख मात्र कर दिया गया है । स्वर्गीय देसाई महोदयके “जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास में तो इसका उल्लेख नहीं है पर प्रो० वेलणकरने “ जिनरत्नकोश "में आगरेको प्रतिका उल्लेख किया है पर उन्होंने उसे विनयप्रभोपाध्यायवाला ही होगा ऐसा अनुमान कर लिया, जो गलत है । श्रीविनयप्रभोपाध्यायवाला तो ८०० श्लोकका छोटासा ग्रंथ है पर श्रीविवेकसमुद्रोपाध्यायका प्रस्तुत महाकाव्य ५४२४ श्लोक परिमाणका है। सं. २००२ में लिये अपने नोट्सके अनुसार यहाँ परिचय व प्रशस्ति दी जा रही है। इस महाकाव्यके पांच सर्ग हैं और सं. १३२३ दीवाली के दिन खंभातमें रचकर पूर्ण किया गया है। आदि: ॥ॐ॥ अहं ॥ श्री गौतमस्वामिने नमः ।। प्रव्रज्याप्रमदाविधाहमहसि स्कन्धस्थकेशावलीसंक्रान्तिच्छलतः कपोलविलसत्कस्तूरिकामण्डनः । सर्वस्वर्वनिताप्रगीतघवल: सन्मार्गमासेदुषां, भव्यानामिह जायतां जिनवरः श्रीनाभिमू: सम्मुखः ॥१॥ की. पीयूषवृष्टया मम निखिलममी तापमौर्वीत्थमन्नन् , नूनमन्वेति येभ्यः करचरणनखच्छमना रत्नराशिः । स्वःसन्मन्थेऽपि गुप्ता कथमपि हि मणी कौस्तुभं दासयन्ती, प्रीत्या प्राभृत्यका(न्मम ददतु शिवं तेऽजिताया जिनेन्द्राः ॥२॥ आयातो गलहस्तिामृतरुचिच्छत्रत्रयीछमतः, त्रिश्रोता किल तीर्थमुत्तमतमं यं बाडमासेवितुं । उर्ध्वस्वं जडरूपिणी व्रजति स श्रीवर्द्धमानश्रिये उर्ध्वस्फटाम्रदलकः करुणामृतेनाकण्ठभृतो दशनदीधितीपुष्पमालः । विश्वत्रयी शिरसि संस्थित आशु भूयाच्छ्रीपार्श्वपूर्णकलशो मम संमुखीनः ॥ ४ ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.521702
Book TitleJain_Satyaprakash 1953 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1953
Total Pages28
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size12 MB
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