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શ્રી. જૈન સત્ય પ્રકાશ [वर्ष : १८ गणिके पास दोनों व्याकरण, न्यायकंदली, अनेकान्तजयपताका, न्यायाधुधिखण्डन आदि ग्रन्थोंके अध्ययन करने का उल्लेख किया है। आचार्य श्रीजिनकुशलसूरिजीको आपने विद्याध्ययन कराया था जिसका उल्लेख 'चैत्यवन्दन कुलकवृत्ति में आचार्यश्चीमे स्वयं इस प्रकार किया है:
" सन्मौक्तिकस्तबकसेव्यपदोऽनुवेलमस्ताघसंवरधरः कुपथप्रमाथी । विद्यागुरुर्मम विवेकसमुद्रनामोपाध्याय इद्धतरत्मनिधिर्बभूव ॥"
सं. १३७७में गच्छनायक श्रीजिनचंद्रसूरिजीका स्वर्गवास हो जाने पर श्रीमालकीर्ति गणिको आचार्यपद देना निश्चित किया गया तो संघ व विशेषतः श्रीतेजपालने उत्तके आचार्यपदोत्सव करनेकी आज्ञा तत्कालीन आचार्य राजेन्द्रचन्द्रसूरि व आपश्रीसे ली थी। ' श्रीजिनकुशलसूरि पट्टाभिषेकरास'में ' इस बातका निर्देश इस प्रकार है :
" ता गुरु राजेन्द्रचंद्रसूरिवरराउ । सुयसमुह मुनिवररयणु, विवेउसमुद्द उवझाउ ॥ ११ ॥ संघ सयल गुरु वीनवए, तेजपाल सुविसेसु ।
पाटमहोच्छव कारविसु, दियइ सुगुरु आएसु ॥ १२ ॥ इस उल्लेखसे उस समय आपका गच्छमें कितना सम्मान व प्रेमभाव था मालुम हो जाता है । आप गच्छमें वयोवृद्ध गीतार्थ और प्रकाण्ड विद्वान थे। संवत १३७९ पाटणमें आचार्यश्री जिनकुशलसूरिजी अपने पूर्व दिये हुए वचनका पालन करनेके लिये भी भीमपल्लोसे .पधारे और मिती ज्येष्ठ सुदि १४ के दिन श्रीविवेकसमुद्रोपाध्यायका अपने ध्यानबलसे आयुःशेष निकट जान कर स्वस्थ शरीर होने पर भी चतुर्विध संघके समक्ष मिथ्या दुष्कृत, क्षामणापूर्वक अनशन करा दिया । उपाध्यायजी पंच परमेष्ठिका ध्यान करते हुए ज्येष्ठ शुक्ला' के दिन स्वर्गवासी हुए । पाटणके संघने बडे समारोहके साथ उनका स्वर्गोत्सव मनाया और अग्निसंस्कारके स्थान पर उनके स्मारकरूपका निर्माण कराया। श्रीजिनकुशलसूरिजीने मिती आषाढ शुक्ला १३ के दिन. वासक्षेप देकर प्रतिष्ठित किया । .
आपकी रचनाएं _ 'जेसलमेर-जैनभाण्डागारीय ग्रन्थानां सूची 'के प्रस्तावना पृष्ठ ५३ और डूंगरजी मंडारके ग्रन्थोके विवरणमें आपके रचित 'पुण्यसागरकथानक का विवरण प्रकाशित हुआ है। सं. १९९९ में जेसलमेर जानेपर हमने उक्त भंडार देखते हुए अपने संग्रहालयके लिये इस प्रतिकी प्रतिलिपि करवा ली थी जिसके आधारसे उपाध्याय श्रीसुखसागरजीने श्रीजिनदत्तसूरि
२ प्र. हमारे संपादित ऐ. जै. काव्यसंग्रह.
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