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साधुचन्द्रकृत तीर्थराज चैत्यपरिपाटीका समय
लेखक : श्रीयुत भवरलालजी नाहटा
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जैनयुग वर्ष १ अंक ६ पृ० २१९ में “ तीर्थराज चैत्यपरिपाटी स्तवनम् ” नामक एक रचना चालू गुजराती रूपान्तर और ऐतिहासिक टिप्पणोंके साथ दक्षिणविहारी मुनि अमरविजयजीके शिष्य मुनि चतुरविजयजीने प्रकाशित की थी। मुनिश्रीने इसके रचनाकालके संबन्धमें लिखा था कि इसके कर्ता साधुचंद्र के संबन्ध में कोई उल्लेख नहीं मिला पर इसमें देवराज और बच्छराज के संघका उल्लेख किया है, वे जिनविजयजी सम्पादित 'प्राचीन जैन लेख संग्रह' भाग २ लेखाङ्क ३८० वाले राजगृहस्थ सं० १४१२ की प्रशस्तिमें उल्लिखित ठक्कुर मण्डनके पुत्र देवराज बच्छराज होंगे इसलिए इस चैव्यपरिपाटीका समय १५ वां शतक व इसके रचयिता खरतरगच्छीय होना संभव है; जबसे हमने उन उल्लेखको पढा, हमें वह संगत नहीं प्रतीत हुआ क्योंकि इस चैत्यपरिपाटीमें विक्रमपुर (बीकानेर), जोधपुर, सिरोही आदिके कई मंदिरोंका उल्लेख किया है और ये तीनों नगर ही सं० १४१२ के बहुत पीछे बसे हैं। सीरोही सं० १३६२ या १४८२ में, जोधपुर नगर सं० १५१५ में तथा बीकानेर १५४५ में बसा है, वैसे भी राजगृवहाले देवराज वच्छराज बीकानेर आकर शत्रुंजयका संघ निकालें यह संभव नहीं है । चैत्यपरिपाटीका आरंभ बीकानेर के मंदिरोंसे ही किया गया है इसलिए यह रचना सं० १५४५ के पश्चात्की तो स्वयं ही सिद्ध हो जाती है । अब रहा उसका निश्चित समय ज्ञात करना । यद्यपि चैत्यपरिपाटीके अन्तिम पद्यमें “ तेत्रीस वच्छर विग मच्छर " पाठ आता है पर इसके अतिरिक्त तेत्रीस अंककी संगति किसी भी तरह संगत नहीं बैठती। क्योंकि मुनिजीके संभावित सं० १४३३ तो दर किनार पर सं० १५३३ भी होना संभव नहीं । एवं १६३३ इसलिए संभव नहीं कि इस परिपाटीमें बीकानेर के केवल दो जिनालय आदिनाथ और महावीरका उल्लेख आया है जब कि सं० १५९३ तक ४ मन्दिरोंका निर्माण हो चुका था । साधुचन्द्र के संबन्ध में खोज करने पर विदित हुआ कि आप खरतरगच्छके भावहर्षशाखाके उद्भावक भावहर्षसूरिके ये दादागुरु थे इसलिए इनका समय संवत् १५५० से सं० १६०० के करीबका होना चाहिए। अब बीकानेरके जिन दो मन्दिरों का उल्लेख आया है उनके निर्माणके संबन्ध में विचार करने पर मालूम हुआ कि प्रथम आदि
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