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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir खेडका जैन शिलालेख लेखक :-श्रीयुत अगरचंदजी और भंवरलालजी नाहटा आठवीं शतीसे राजस्थानमें जैनधर्मका प्रचार उत्तरोत्तर बढा है। अद्यावधि राजस्थानमें प्रात जैन मूर्तियोंमें संवतोल्लेखवाली पिंडवाड़ास्थित धातुमय विशाल कायोत्सर्ग-प्रतिमाएं सबसे प्राचीन हैं । ' कुवलयमाला की प्रशस्तिके अनुसार इसी शताब्दीसे श्रीमालमगर आदिका प्रदेश जैन मन्दिरोंसे व्याप्त हो गया था । श्रीमाल, पोरवाड़, ओसवाल जातियां भी इसी समयके आसपास प्रकाशमें आयीं। ___ राजस्थानमें मारवाड़का प्रदेश जैनधर्मके प्रचारकी दृष्टि से सविशेष उल्लेख योग्य रहा। इस प्रदेशके गांव गांवमें जैन विद्वानोंने पहुंचकर अहिंसाधर्मका सन्देश सर्वत्र प्रसारित किया । लाखों क्षत्रियादि लोगोंको मांसभक्षण और बलिप्रथासे विरत कर जैनधर्मानुयायी बनाये । यहांके राजा महाराजाओंसे भी जैन विद्वानोंका सम्बन्ध बहुत अच्छा रहा है। करे महाराजा तो उन्हें अपना गुरु ही मानते थे। यहांके जैनोंका शासन-संचालनमें भी बहुत बड़ा हाथ रहा है । शताब्दियों तक मंत्रित्वका भार कुशल जैनोंके कंधों पर रहा और उन्होंने अपनी अप्रतिम प्रतिभा और व्यवहार-कौशल्यका परिचय देते हुए इस देशकी सर्वांगीण उन्नतिमें हाथ बटाया। इस प्रदेशके गांव गांवमें जैनौका निवास होने एवं उनके समृद्धिशाली होनेके कारण जैन मंदिर व मूर्तियोंका निर्माण भी उल्लेखनीय रहा है । मुसलमानी शासनकालमें राजपूत लोग अपनी मातृभूमिकी रक्षाके लिये बराबर कटिबद्ध रहे, फलतः अन्य प्रदेशोंकी अपेक्षा इस प्रदेशको सुरक्षा भी मुसलमानी साम्राज्यके क्रूर, अत्याचारी शासनमें भी ठीक रही; पर मरुप्रदेशमें जलाभाव होनेके कारण अकालादिके उपद्रव रहे हैं। आपसी लड़ाइयोंमें भी राजपूतोंने पर्याप्त हानि उठाई । इस लड़ाइयों और अकालादिके कारण बहुतसे प्रदेश उजड़ गये । छोटे छोटे गांवोंकी अधिवासी जनता निकटवर्ती नगरोंमें जा वसी, फलतः बहुतसे स्थानोंके जैन मंदिर व मूर्तियां पूर्णतः सुरक्षित नहीं रह सकी । ग्यारहवींसे सतरहवीं शतीके बीचमें इस प्रदेशमें बहुतसे बड़े बड़े जिनालय, जो कला एवं शिल्प-स्थापत्यकी दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं, निर्मित हुए । सोलहवीं शतीमें मूर्तिपूजाके विरोधी लोकामतका प्रचार इधर भी बढा और परिणाम स्वरूप सतरहवीं शतीके बाद पूर्ववत् अटल श्रद्धा और एकमान्यता न रह सकी। अठारहवीं शतीसे तो स्थानकवासी और उन्नीसवीं शतीमें तेरापंथका प्रचार होने के बाद स्थान स्थान पर जैनसंघ दो भागोंमें विभक्त दग्गोचर होने लगा। बहुतसे For Private And Personal Use Only
SR No.521700
Book TitleJain_Satyaprakash 1953 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1953
Total Pages28
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size12 MB
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