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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १४० ] શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ [१:१८ नरेश्वरने प्रमुदित होकर सेठके इस कार्यकी प्रशंसा करते हुए मनपसंद भूमि पर कार्य प्रारंभ कर देनेकी आज्ञा दी । संघपतिने राज्ञा शिरोधार्य की । तत्काल भूमि खरीद कर वास्तुविदको बुलाकर सं. १६६८ अक्षय तृतीयाके दिन शुभ लग्नमें जिनालयका खातमुहूर्त किया। संघपतिने उज्ज्वल पाषाण मंगवाकर कुशल शिल्पियों द्वारा सुघटित करा जिनभवन निर्माण करवाया । मूलनायकजीके उत्तुंग शिखर पर चौमुख विहार वनाया । मोटे मोटे स्तंभों पर रंभाकी तरह नाटक करती हुई पुत्तलिकाएं बनवायीं । उत्तर, पश्चिम, और दक्षिणमें शिखरबद्ध देहरे करवाये । पश्चिमकी ओर चढते हुए तीन चौमुख किये । यह शिखरबद्ध बावन जिनालय गढकी तरह शोभायमान बना । पूर्व द्वारकी ओर प्रौढ प्रासाद हुआ उत्तर दक्षिण द्वार पर बाहरी देहरे बनवाये । सं. १६६९ अक्षयतृतीयाके दिन शुभ मुहूर्तमें सारे नगरको भोजनार्थ निमन्त्रण किया गया । लड्डू, जलेबी, कंसार आदि पक्वानों द्वारा भक्ति की। स्वयं जाम नरेश्वर भी पधारे । वद्धा-पद्मसीका पुत्र वनपाल और श्रीपाल महाजनोंको साथ लेकर आये । भोजनानन्तर सबको लौंग, सुपारी, इलायची आदिसे सत्कृत किया । ____ इस जिनालयके मूलनायक श्रीशान्तिनाथ व चौमुख देहरीमें सम्मुख सहस्रफणा पार्श्वनाथ व दूसरे जिनेश्वरोंके ३०० बिम्ब निर्मित हुए । प्रतिष्ठा करवानेके हेतु आचार्यप्रवर श्रीकल्याणसागरसूरिजीको पधारनेके लिए श्रावक लोग विनति करके आये । आचार्यश्री अंचलगच्छके नायक और बादशाह सलेम-जहांगीरके मान्य थे । सं. १६७५में आप नवानगर पधारे, देशना श्रवण करनेके पश्चात् राजसी साहने प्रतिष्ठाका मुहूर्त निकलवाया और वैशाख सुदि ८ का दिन निश्चित कर तैयारीयां प्रारंभ कर दी । मध्यमें माणक स्तंभ स्थापित कर मण्डपकी रचना की गई । खांड भरी हुई थाली और मुद्राके साथ राजसी साहने समस्त जैनोंको लाहण बांटी। चौरासी न्यातके सभी महाजनोंको निमन्त्रित कर ज़िमाया । नाना प्रकारके मिष्टान्न -पक्वान्नादिसे भक्ति की गई । भोजनानन्तर श्रीफल दिये गये। रमणीय और ऊंचे प्रतिष्ठामण्डपमें केसरके छीटे दिये गये । जलयात्रा महोत्सवादि प्रचुर द्रव्यव्यय किया । सारे नगरकी दुकानें व राजमार्गीको सजाया गया । धूपसे बचनेके लिए डेरा तंबू ताने गये, विविध चित्रादिसे सुशोभित नवानगर देवविमान जैसा लगता था । रामसी, नेता, धारा, मूलजी, सोमा, कर्मसी, वर्द्धमान सुत वजपाल, पदमसी सुत श्रीपाल आदि चतुर्विध संघके साथ संधपति राजसो सिरमौर थे। जलयात्रा उत्सवमें नाना प्रकारके वाजिंत्र, हाथी, घोड़े, पालखी इत्यादिके साथ गजारूढ इन्द्रपदधारी श्रावक व इन्द्राणी बनीहुई सुश्राविकाएं मस्तक पर पूर्णकुंभ, श्रीफल और पुष्पमाला रख कर चल रही थीं। कहीं सन्नारियां गीत गा रही थी तो कहीं भाट लोग बिरुदावलो वखानते थे। वस्त्रदान आदि For Private And Personal Use Only
SR No.521698
Book TitleJain_Satyaprakash 1953 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1953
Total Pages28
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size12 MB
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