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१४० ] શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ
[१:१८ नरेश्वरने प्रमुदित होकर सेठके इस कार्यकी प्रशंसा करते हुए मनपसंद भूमि पर कार्य प्रारंभ कर देनेकी आज्ञा दी । संघपतिने राज्ञा शिरोधार्य की । तत्काल भूमि खरीद कर वास्तुविदको बुलाकर सं. १६६८ अक्षय तृतीयाके दिन शुभ लग्नमें जिनालयका खातमुहूर्त किया।
संघपतिने उज्ज्वल पाषाण मंगवाकर कुशल शिल्पियों द्वारा सुघटित करा जिनभवन निर्माण करवाया । मूलनायकजीके उत्तुंग शिखर पर चौमुख विहार वनाया । मोटे मोटे स्तंभों पर रंभाकी तरह नाटक करती हुई पुत्तलिकाएं बनवायीं । उत्तर, पश्चिम, और दक्षिणमें शिखरबद्ध देहरे करवाये । पश्चिमकी ओर चढते हुए तीन चौमुख किये । यह शिखरबद्ध बावन जिनालय गढकी तरह शोभायमान बना । पूर्व द्वारकी ओर प्रौढ प्रासाद हुआ उत्तर दक्षिण द्वार पर बाहरी देहरे बनवाये । सं. १६६९ अक्षयतृतीयाके दिन शुभ मुहूर्तमें सारे नगरको भोजनार्थ निमन्त्रण किया गया । लड्डू, जलेबी, कंसार आदि पक्वानों द्वारा भक्ति की। स्वयं जाम नरेश्वर भी पधारे । वद्धा-पद्मसीका पुत्र वनपाल और श्रीपाल महाजनोंको साथ लेकर आये । भोजनानन्तर सबको लौंग, सुपारी, इलायची आदिसे सत्कृत किया । ____ इस जिनालयके मूलनायक श्रीशान्तिनाथ व चौमुख देहरीमें सम्मुख सहस्रफणा पार्श्वनाथ व दूसरे जिनेश्वरोंके ३०० बिम्ब निर्मित हुए । प्रतिष्ठा करवानेके हेतु आचार्यप्रवर श्रीकल्याणसागरसूरिजीको पधारनेके लिए श्रावक लोग विनति करके आये । आचार्यश्री अंचलगच्छके नायक और बादशाह सलेम-जहांगीरके मान्य थे । सं. १६७५में आप नवानगर पधारे, देशना श्रवण करनेके पश्चात् राजसी साहने प्रतिष्ठाका मुहूर्त निकलवाया और वैशाख सुदि ८ का दिन निश्चित कर तैयारीयां प्रारंभ कर दी । मध्यमें माणक स्तंभ स्थापित कर मण्डपकी रचना की गई । खांड भरी हुई थाली और मुद्राके साथ राजसी साहने समस्त जैनोंको लाहण बांटी। चौरासी न्यातके सभी महाजनोंको निमन्त्रित कर ज़िमाया । नाना प्रकारके मिष्टान्न -पक्वान्नादिसे भक्ति की गई । भोजनानन्तर श्रीफल दिये गये।
रमणीय और ऊंचे प्रतिष्ठामण्डपमें केसरके छीटे दिये गये । जलयात्रा महोत्सवादि प्रचुर द्रव्यव्यय किया । सारे नगरकी दुकानें व राजमार्गीको सजाया गया । धूपसे बचनेके लिए डेरा तंबू ताने गये, विविध चित्रादिसे सुशोभित नवानगर देवविमान जैसा लगता था । रामसी, नेता, धारा, मूलजी, सोमा, कर्मसी, वर्द्धमान सुत वजपाल, पदमसी सुत श्रीपाल आदि चतुर्विध संघके साथ संधपति राजसो सिरमौर थे। जलयात्रा उत्सवमें नाना प्रकारके वाजिंत्र, हाथी, घोड़े, पालखी इत्यादिके साथ गजारूढ इन्द्रपदधारी श्रावक व इन्द्राणी बनीहुई सुश्राविकाएं मस्तक पर पूर्णकुंभ, श्रीफल और पुष्पमाला रख कर चल रही थीं। कहीं सन्नारियां गीत गा रही थी तो कहीं भाट लोग बिरुदावलो वखानते थे। वस्त्रदान आदि
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