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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १३८ ] શ્રી, જૈન સત્ય પ્રકાશ [ वर्ष : १८ भरत क्षेत्रके २५ || आर्य देशों में हालार देश 'प्रसिद्ध है। जहांके अश्वरत्न प्रसिद्ध होते हैं और कृष्णका निवासस्थान द्वारामती तीर्थ भी यहीं अवस्थित है। इसी हालार देशके नवानगर नामक सुंदर नगरमें जाम श्रीसत्ता नरेश्वर थे जो बड़े न्यायवान और धर्मिष्ठ थे उनके पुत्रका नाम श्रीजसराज था । इस समृद्ध नगर में बड़े बड़े साहूकार रहते थे और समुद्रतटका बड़ा भारी व्यापार था। नाना प्रकारके फल, मेवे, धातु और जबहरातकी आमदानी होती थी । नगरलोक सब सुखी थे । जाम साहब के राज्यमें बकरी और शेर एक साथ रहते थे। यहां दंड केवल प्रासादों पर, उन्माद हाथियोंमें, बन्धन वेणीफूलमें, चंचलता स्त्री और घोड़ोंमें, कैदखाना नारीकुचोंमें, हार शब्द पासोंके खेलमें, लोभ दीपकमें, साल पलंगमें, निस्नेहीपना जलमें, चोरी मनको चुरानेमें, शोर नृत्य-संगीतादि उत्सवोंमें, बांकापन वांसमें और शंका लज्जा में ही पायी जाती थी । यह प्रधान बंदरगाह था, व्यापारियों का जमघट बना रहता । ८४ ज्ञातियोंमें प्रधान ओसवंश सूर्यके सदृश है जिसके श्रृंगार स्वरूप राजसी साहका यश चारों और फैला हुआ था। गुणोंसे भरपूर एक एकसे बढकर चौरासी गच्छ हैं। भगवान महावीरको पड़परंपरा में गंगाजल की तरह पवित्र अंचलगच्छनायक श्रीधर्ममूर्त्तिसूरि नामक यशस्वी आचार्यके धर्मधुरंधर श्रावकवर्य राजसी और उसके परिवारका विस्तृत परिचय आगे दिया जाता है। महाजनों में पुण्यवान् और श्रीमन्त भोजासाह हुए जो नागड़ागोत्रीय होते हुए पहिले पारकरनिवासी होने के कारण पारकरा भी कहलाते थे । नवानगरको व्यापारका केन्द्र ज्ञात कर साह भोजाने यहां व्यापारकी पेढ़ी खोली । जाम साहबने उन्हें बुलाकर सत्कृत किया और वहां बस जाने के लिये उत्तम स्थान दिया । सं. १५९६ सालमें शुभ मुहूर्त्त में साह भोजा सपरिवार आकर यहीं रहने लगे। सेठ पुण्यवान और दाता होनेसे उनका भोज नाम सार्थक था। उनकी स्त्रो भोजलदेकी कुक्षिसे ५ पुत्र रत्न हुए। जिनका १ खेतसी, २ जइतसी, ३ तेजसी, ४ जगसी और ५वां रतनसी नाम था । सं. १६३१ - ३२ में दुष्कालके समय जइतसीने दानशालाएं खोलकर सुभिक्ष किया। तीसरे पुत्र श्रीतेजसी बड़े पुण्यवान, सुन्दर और तेजस्वी थे । इनके २ स्त्रियां थीं । प्रथम तेजलदेके चांपसी हुए, जिनकी स्त्री चांपलदेकी कुक्षिसे नेता, धारा और मूलजी नामक तीन पुत्र हुए। द्वितीय स्त्री वइजलदे बड़ी गुणवती, धर्मिष्ठा और पतिपरायणा थी । उसकी कुक्षिसे सं. १६२४ मिति मार्गशीर्ष कृष्णा ११ के दिन शुभ लक्षणयुक्त पुत्ररत्न जन्मा । ज्योतिषी लोगोंने जन्म लग्न देखकर कहा कि यह बालक जगतका प्रतिपालक होगा। इसका नाम राजसी दिया गया जो क्रमशः बड़ा होने लगा ऊसने पोसालमें मातृकाक्षर, चाणक्यनीति, नामालेखा पढने के अनन्तर धर्मशास्त्रका अभ्यास किया । योग्य वयस्क होने पर सजलदे नामक गुणवती कन्यासे उसका विवाह हुआ । सजलदेके १ हाल देशका वर्णन संस्कृत श्लोकों में हमारे संग्रह में है वैसे ही संस्कृत काव्य में भी दिया है । For Private And Personal Use Only
SR No.521698
Book TitleJain_Satyaprakash 1953 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1953
Total Pages28
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size12 MB
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