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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गर्दभी विद्याका वैज्ञानिक आविष्कार लेखक : डॉ. श्रीयुत बनारसीदास जैन, एम्. ए., पीएच. डी. गर्दभी विद्या एक प्राचीन विद्याका नाम है जिससे ध्वनिमात्र के द्वारा शत्रु सेनाका संहार किया जा सकता था। इसको गर्दभीविद्या इसलिए कहते थे कि इसके प्रयोग में विद्याद्वारा निर्मित एक गधीके मुखसे ऐसी एक विशेष ध्वनि उत्पन्न की जाती थी कि जो कोई उसे सुनता वह तत्काल मुहसे लहु वमन करता हुआ अचेत होकर मर जाता । इस गर्दभीविद्या का उल्लेख कालकाचार्य कथानक में मिलता है । कालकाचार्य जैन इतिहासमें बहुत प्रसिद्ध व्यक्ति हुए हैं । इन्होंने भिक्षुवेश धारण करके अपनी बहिन सरस्वती की शीलरक्षा के निमित्त उसे कुछ कालके लिये छोड़ा और कार्यसमाप्ति पर प्रायश्चित्तके साथ उसे फिर ग्रहण किया । यही घटना उनके जीवनका प्रधान कथानक है जिसकी जैनाचार्योंने संस्कृत और प्राकृतमें गद्यपद्यमयी अनेक रचनायें की हैं । इनमें मुख्य रचनाओंको प्रो० डब्ल्यू. एन. ब्राउनने संपादित करके अपनी पुस्तक " स्टोरी ओक कालक "मैं सन् १९३३ में संगृहीत किया । इन्हीं की देवनागरी प्रतिलिपि मेरे किये हुए हिन्दी अनुवाद सहित सन् १९४४ में ओरियंटल कालिज मेगेज़ीन लाहौर में प्रकाशित हुई। संक्षेपरूपमें कथानक इस प्रकार है विक्रमादित्य से पहले उज्जयिनी में गर्दभिल्ल नामका राजा था। उसका यह नाम इस लिये पड़ा कि वह गर्दभीविद्याको जानता था । वह बड़ा ही स्त्रीलंपट था। एक बार कालकाचार्यकी बहिन साध्वी सरस्वती, जंगल-दिशाको बाहर जा रही थी । गर्दभिल्ल उसे देखते ही उस पर मोहित हो गया और बलाकार उसे अपने अन्तःपुरमें ले गया । मन्त्रियों के समझाने और प्रजाके विनति करने पर भी राजाने सरस्वतीको न छोड़ा। लेकिन जब कालकाचार्यके कहने पर भी गर्द भिल्ल न माना तो उसे राजा पर बड़ा क्रोध आया और वह नगर में पागलों की भांति फिरने लगा । अन्त में वह उज्जयिनीको छोड़कर हिन्दुकदेश ( सिन्धु नदीके किनारेका कोई प्रदेश ) में चला गया जहांके शासक " शाही " कहलाते थे । कालकाचार्यने विद्याबलसे प्रधान शाहीको अपना भक्त बना लिया। एक दिन उचित अवसर पाकर उसे उज्जयिनी पर धावा करने की प्रेरणा की । शाही मान गया और अपनी सेनासे उज्जयिनी को आ कर घेर लिया। शत्रु सेना के संहार के लिये गर्दभिल्लने गईभीविद्याकी आराधना आरम्भ की। जब यह सूचना कालकाचार्यको मिली तो उन्होंने शाहीसेना के एक सौ धनुर्धारी योद्धाओं को बुलाकर कहा कि थोड़ी देर में किले के परकोटे पर एक गधी प्रकट होकर चीखना शुरू करेगी । जो कोई उसकी चीख़ को सुन लेगा, वह अचेत होकर मुंहसे लहू वमन करता हुआ मर जायगा। इससे बचनेका यही उपाय है कि ज्योंही गधी चोखनेके लिये अपना मुंह खोले, तुमने त्योही युगपत् For Private And Personal Use Only
SR No.521697
Book TitleJain_Satyaprakash 1953 03 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1953
Total Pages28
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size13 MB
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