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४४४ ] શ્રી જન સત્ય પ્રકાશ
[વર્ષ ૧૨ होना चाहिये। श्लो. ३६ में 'अर्थ धान्य आदि धातुओका' स्वामी ऐसा लिखा है तो धान्यधातु कौनसी ! श्लो. ४२ में रवि बलवान हो तो पिता तथा चाचा की चिन्ता लिखा है और श्लो. ४१ में रवि बलवान हो तो अपनी चिन्ता लिखा है, यह पूर्वापर विरोध होता है। इस ग्रंथकी प्राचीन प्रतियों में श्लो. ४२ के उत्तरार्द्ध में 'रवौ' के स्थान पर 'रपि' पाठ है। श्लो.. ४३ में 'क्षिता' का अर्थ लग्न लिखा है, परंतु अन्य ग्रंथों में भूमिवाचक शब्द का चतुर्थ स्थान लिखा है । श्लो. ४६ में 'श्वेतरश्मो' का अर्थ सूर्य लिखा है, मगर कोषोंमें चंद्रमा लिखा है, तो सूर्य अर्थ कहांसे आया ! श्लो. ५१ में 'आयबल' लिखा, उस स्थान पर आधबल (लग्नबल) होना चाहिये । श्लो. ५५ में केन्द्रादिस्था नभश्चरा का अर्थ 'केन्द्रादि स्थानों के ग्रह चर होता है, अर्थात् उनका बल घटता बढता रहता है। ऐसा मन:कल्पित अर्थ करके अपनी विद्वत्ताका परिचय दिया है ? श्लो. ५७ का अर्थ 'शुभ ग्रहोंका बल शुक्ल पंचमीसे लेकर प्रत्येक तिथिको एक पाद घट जाता है और अशुभ ग्रहों का बल कृष्ण पंचमीसे लेकर' - ऐसा लिखा है, यह अर्थ भी विपरीत लिखा है । क्यों की शुक्ल पक्षमें शुभ ग्रह बलवान होते हैं। जिससे उनका बल घटता नहीं, किन्तु बढता है। एवं अशुभ ग्रह कृष्ण पक्षमें बलवान है जिससे उनका भी बल वढता है। श्लो. ६२ 'दिक्षु ज्ञो गुरुरविकुजशनिसितराशिनो निसर्गास्तु ' का अर्थ ' पूर्वादि दिशाओमें क्रमसे बुध गुरु भीम शुक्र चंद्र और शनि बली हो ते हैं' ऐसा लिखा है उसमें सूर्यको लिखा नहीं और शनिको अपनी इच्छानुसार आखीरमें लिखा। इससे मालम होता है कि श्लोक का आशय बिलकुल समज में नहीं आया। श्लोक में दिग्बल बतलाया है जिससे इसका अथ पूर्वदिशा (लान) में बुध और गुरु, दक्षिण (दशम स्थान)में रवि और मंगल, पश्चिम में (सप्तम स्थान में) शनि और उत्तर (चौथे स्थान) में शुक्र और चंद्रमा इस क्रमसे बलवान होता है-ऐसा होना चाहिये। एवं इसी श्लोस के उत्तरार्द्धमें निसर्ग बलका वर्णन है, परंतु समझ में न आनेसे मंगल को प्रथम लिख कर उसका सबसे कम बल माना है यह बिलकुल किसी ग्रंथकारको सम्मत नहीं है। शास्त्रकार तो सबसे कम बल शनिका मानते हैं। भाषान्तर कर्त्ताकी श्लोक नीचेकी टिप्पनीसे मालूम होता है कि तीन प्राचीन प्रतियों में शनि प्रथम लिखा हुआ मिला है, तो भी किस आशयसे मंगल को प्रथम रखा गया यह तो भाषान्तरकार स्पष्ट करे तब मालूम होवे । श्लो.६७-६८ 'शत्र मन्दसितौ समश्च शशिजो० इत्यादि ये बहज्जातक ग्रंथके प्रचलित श्लोक हैं, जो ज्योतिषके प्रारंभिक पाठ्य पुस्तकांमें भी लिखे रहते हैं। इनमें 'सूरेः के स्थान पर 'सौरे:' और 'सौम्य' के स्थान पर 'सूम्य' अशुद्ध लिखा । इनसे भाषान्तरमें सूर्यके स्थानपर गुरु का और गुरु के स्थान पर सूर्यका लिखा,
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