________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
-
॥ॐ अहम् ॥ अखिल भारतवर्षीय जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक मुनिसम्मेलन संस्थापित श्री जैनधर्म सत्यप्रकाशक समितिनुं मासिक मुखपत्र
त्य प्रकाश जेशिंगभाईकी बाडी : घोकांटा रोड : अमदावाद (गुजरात) वर्ष १२ || CIN स. २००३ : वी.नि. स. २४७७६.. ७ ॥ अंक ९
प ११: रविवार : १५भाजून ॥ १४१
एगुणत्रीसीभावना। सं०-पूज्य मुनिमहाराज श्री कांतिविजयजी संसारम्मि असारे नत्थि सुहं वाहिवेयणापउरे । जाणतो विहु जीवो न कुणइ जिणदेसियं धम्मं ॥१॥ अथिरं जीय रिद्धी य चंचला जुव्वर्ण पि छणसरिसं। पच्चरखं पिक्खंतो तह विहु वंचिजए जीवो ॥२॥ घरवासे वा मूढो अच्छइ आसासयाई चिन्तन्तो।। न कुणइ पारत्तहियं मा न हओ मञ्चुसीहेण ॥३॥ वाही इट्टवियोगो दारिदं तह जरामहादुक्खं । एएहिं परिगहिओ तह विहु धम्मं नवि करेइ ॥ ४ ॥ लहिऊण माणुसत्तं एवं अइदुल्लहं तु जीव !। लागमु जिणवरधम्मे अचिन्तचिन्तामणीकप्पे ॥५॥ जीव ! तुम नवमासे वसिओ असुइमि गम्भवासम्मि । संकोडि अंगुवंगो वि संहतो नारयं दुक्खं ॥६॥ रे जीव ! संपयं चिय वीसरियं तुम तं महादुक्खं । थे पि हुजं न कुणसि जिणिन्दवरदेसियं धम्म ॥७॥ जं मारेसि रसते जीवे रे जीव । निरवराहे वि। उवभुजसि तं दुक्खं पत्तो अइदारणे नरये ॥८॥ जं हरसि परवणाइं जं च वियारेसि परकलत्ताई। तं जीव ! पाव ! नरण अइधोरे सहसि दुक्खाई ॥९॥ अथिराण चंचलाण य खणमित्तसुहंकराण पावाणं । दुग्गइ निबंधणाणं विरमसु एयाग भोगाणं ॥१०॥
For Private And Personal Use Only