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શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ
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७ नेमिनाथ शलोको गा. ८२ देवचन्द्र श्रीमाली सं. १९०० श्रा. सु. ५ गांगड ग्राम ८ मिलमेतानो शलोको गा. ११७ उदयरत्न सं. १७९५ जे. सु. ८ खेडे ९. विवेकविलाश शलोको गा. ९२ देवचन्द्र श्रीमाली सं. १९०३ मि. सु. १३ ३. इनके अतिरिक्त सीरोहीके विजयराज भूरमल सिंघीके प्रकाशित 'स्तवनसंग्रह ' में गा ५३ का अज्ञातकर्तृक नेमिसलोका प्रकाशित हैं ।
४. श्रीरत्नप्रभाकर ज्ञानपुष्पमाला फलौवीसे प्रकाशित प्राचीन छंद गुणावली मा. ३-४ में जोरावरमल रचित पार्श्वनाथ सिलोके५ (गा. ५६ सं. १८५२ पो. व. १०) प्रकाशित हैं । ५. मारवाडी सिलोकादि संग्रहकी दो पुस्तकें प्रकाशित हुईं हैं जिनमें २०-२५ जैनेतर मारवाडी सिलोके प्रकाशित हुए हैं उनमें दो जैन सिलोके नीचे लिखे हैं-
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(१) चंदराजारो सिलोको गा. ५१, सं. १८१५ वैशालापुर हीरानंदजीके चौमासे में कानीराम सुतरारचित ।
(२) नेमनाथजीरो शिलाको गा. २८ अज्ञातकर्तृक (सरस्वती सामण सिवरूं शुराती) ( नं. २ अन्य सिलोका संग्रह में गंगाराम प्रतापजीके शिलोका पुस्तकमें भी छपा है ) ६. 'जैनयुग' वर्ष ५ पृष्ठ ३९३ में विद्याधररचित हीरविजयसूरिका सलोका गा, ८२का प्रकाशित हो चुका है ।
७. 'शंखेश्वर महातीर्थ' पुस्तकमें भीमसी माणेक प्रकाशित दोनों शंखेश्वर सलोके प्रकाशित हैं ।
८. बीकानेर के गोविंदराम भणसाली प्रकाशित 'विविधरत्नस्तवनसंग्रह ' में मुनि रामरचित (सं. १९३१ जे. व. ११ मेनसेर) नेभिसलोका गा. ६का प्रकाशित है ।
९. स्थानकवासी सम्प्रदाय के प्रकाशित एक अन्य ग्रन्थमें भी कई सलोके प्रकाशित देखने में आये थे, पर वह ग्रन्थ अभी पास न होने से उनका नामनिर्देश नहीं किया जा सका । हमारे संग्रह में कतिपय अप्रकाशित सिलोके
१. ऋ. कल्याणजी सिलोको गा. २३ पव
आदि- सरसतिसामणि तुझ पाय लागू, जाण घणेरी हूं बुधि मांगु । गवरीचा नंदण देव गनेसो, तुम्ह पाय प्रणमी बुधि रहेसो ॥ १ ॥
अंस- नाम कल्याण जीरो जह भणेसी, जे नरनारी सफल फलेसी ।
पूज्य कल्याण पाय राघव लागें, इरित परित मनबंछित सांग ॥ २३ ॥
५. इस सलोकाका रचनाकाल कहीं १८५१ कहीं ५२ कहीं ५३ लिखा मिलता है। यह गड़बड़ी लेखक के दोषसे हुई ज्ञात होती है ।
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