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શ્રી તાણુસ્વામી ઔર ઉનકા સમાજ
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खंडन से प्रभावित हो कर चिकनकी सोलहवीं शताब्दीमें पूर्व देश में कबीरदासने कबीर पंथकी, गुजरात भारवाड में लोंका शाहने इंडिया पंथकी और पंजाब में गुरु नानक देवने सिक्ख पंथ की स्थापना की । इन सब महात्माओंने मूर्तिपूजाका खंडन किया है।
तारणस्वामी बडे प्रभावशाली उपदेष्टा और अध्यात्मरसलीन जैन संत थे । बेतवा नदीसे एक मील दूर मल्हारगढ में इनका समाधिस्थान है। इसके बोचमें जिनवाणी चैत्यालय है और इर्दगिर्द यात्रियों के ठहरनेको धर्मशाला | नदी के तट पर स्वामीजोके सामायिक करनेका दालान है, और मध्य में तीन चबूतरे हैं। एक पर स्वामीजी ध्यान लगाते थे । भवनके पीछे लुमानशाहका झोपडा है । दूसरा स्थान सेमरखेडीमें है । तारणस्वामी के बनाये १४ ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं - १. श्रावकाचार श्लोक ४६२, २. मालारोहण श्लो० ३२; ३. पंडित पूजा ३२; ४. कमलवत्तीसी ३२ ५ उपदेशशुद्धलार ५८८ ६ ज्ञानसमुच्चयसार ९०७. रामलप लुड या अमलनाडु ३२३३, ८. चौबीस ठाण, गद्यपद्य २० पत्रे; ९. त्रिभंगसार ७१ ० १०. खतिका विशेष गद्य २ पत्रे; ११. सिद्धस्वभाव १ पत्रा, १२. शून्यस्वभाव २ प १३. नाममात्रा, ९ पत्रे और १४ द्मस्थ वामीपत्रे * । इनमेंसे श्रावकाचार पर स्वर्गीय ब्र० सीतलप्रसादजीने सं० १९८८में हिंदी टीका लिखी, जिसे सागर (सी०पी०) से सं० १९८९ में भथुराप्रसाद बजाजने प्रकाशित किया ।
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तारण तरण श्रावकाचारकी भाषा बडी विचित्र है जैसा कि नीचे दिये हुए अवतरण से प्रकट होगा
सुदेवं न उपासते क्रियते लोक मूढयं ।
कुदेवे याहि भक्ति, विश्वासं नरयं पतं ॥ ५९ ॥ अंध अंधेन दृष्यते ।
अदेवं देव उक्तं च,
मार्गे किं प्रवेशं च, अंध कूपे पतंति ये ॥ ६० ॥
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* तारणस्वामी संबन्धी भूमिका से लिया गया है ।
अर्थ- जो सच्चे देव (अरहंत) को नहीं पूजते और लोकमूढता करते हैं, कुदेवमें जो उनकी भक्ति और विश्वास है, वे नरकमें डालने वाले हैं ॥ ५९ ॥
अदेवो देव कहन! ऐसा है जैसे अंधे को अंधे द्वारा मार्ग दिखाया जावे । मार्गमें प्रवेश कैसे होगा ? ये अदेव अंधकूपमें डाल देते हैं ।
श्रावकाचार की भाषा में संस्कृतके अनेक विभक्त्यन्त पद हैं, बहुत से विभक्ति रहित शब्द हैं । कई विकृत रूप हैं । व्याकरणको दृष्टिसे उनका परस्पर संबन्ध नहीं बैठता । यह
समस्त
कथन श्रावकाचारकी ब्र० शीतलप्रसाद द्वारा लिखित
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