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દો શબ્દોં કી વ્યુત્પત્તિ
दरना;
अवपार.
એમ નવ પ્રકારે रे રહેશે કા पछे अक्षु પ્રતાપે ૩ કે, ઊતરકે એ ગમતુ અમારે કે, મા આવીરે યુ; હે નિષ્કુલાન ૨ કે, સાથે એ 'તે થયું. પદ્મ યારસુ
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નવુ વાડયે લઈએ ? કે, 'તે! સુખ શીયળ શું;
નહિ લધે એને રે કે, તે તા મને વહાલા ગણુ. ગ પાવન કવા रे है, वीय२शे वीतरागी; પરમારથી પુરા ૨ કે, ધન ત્રિકાના ત્યાગી. સાધુ સનાતન ૨ કે, ઉજ્જ્વલ જન અસલી; અતિ ભાવ ભરેાસે કે, શું ભક્તિ ભી. કે, ખંડ ઠંડી माश; रे है, ३२भना शुरू गाशे, ૨, કુમુખ્ખુિ ન જાય ક્યા; કુલખણુ! એમ કરશે ? કે, પ્રભુ પણ ક્રમે થયા. એમ હું અમારે ૨ કે, કેવલીએ કર્યું સા; हरे है,
એહ વિના પાખડી ૨
મેથી મારૂં શરણું મહામલીન મનના
तो प्रभु द्रोही.
दो शब्दों की व्युत्पत्ति
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" दोशी
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लेखक - प्रो. मूलराजजी जैन. )
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१. गुजराती शब्द
गुजराती भाषा के दोशी शब्द से पाठक
परिचित ही हैं । इसका अर्थ है "कपड़े
का व्यापारी | यह शब्द संस्कृत - जन्य है । इसका मूल "दूरी" था जो अथर्ववेद में मिलता है । वहां दूर्श का अर्थ एक प्रकारका कपड़ा है। दूष्य रूपमें यह शब्द दिव्यावदान तथा शिशुपालवध (पृ. २१; १२. ६५) में पाया जाता है। दृश्य भी इसीका रूपान्तर है । ब्राह्मण साहित्य की अपेक्षा जैन साहित्य में यह शब्द अधिक प्रचुरता से मिलता है | देखिये अर्धमागधी - कोष में ' दूस ? शब्द जो संस्कृत दूर्श अथवा दूष्य का प्राकृतरूप है । जैन संस्कृत में इसके अनेक उदाहरण पाये जाते हैं । इसी शब्द से व्यापारी के अर्थ में ठन् (-इक) प्रत्यय लगाकर दोशिक (?) या दौर्शिक (?) अथवा दौण्यिक (?) शब्द बने होंगे । विक्रमसिंह विरचित पारसा भाषानुशासनमें इसका प्रयोग हुआ हैग्राहको मुस्तरी दाता फुरोसंदा च गंधिकः ।
अतारु दोसिकः प्रोक्तो बजाजु कंसारकः स्मृतः ॥ [ प्रकरण २, श्लो. ५० ] ऐसा होने पर भी गुजराती - अंग्रेजी कोष में इस शब्द की व्युप्तत्ति बड़े विचित्र ढंग से दी है । कोषकारने इसे फारसी शब्द दोरा (= कंधा) और संस्कृत शब्द दोस् (भुजा)