SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 34
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir શ્રી જેને સત્ય પ્રકાશ [વર્ષ ૧૨ से निकाला है क्योंकि दोशी लोग अपना माल कंधों पर उठाकर बेचा करते हैं । देखियेदोशी s. m. [P. दोस् the shoulder=S. दोश् the arm. दोशी-वाणियो JSo named from their habit of carrying their goods on their shoulders ] A draper, a wandering cloth seller. M. B. Belsare: An Etymological Gujarati-English Dictionary. Ahmedabad 1927 __२ पंजाबी शब्द "कुड़ी" पंजाबी भाषामें कुड़ी शब्द का अर्थ है कन्या, लड़की, पुत्री । यह शब्द इसी रूप में अथवा रूपान्तर में पंजाबी के अतिरिक्त और किसी भाषामें नहीं मिलता । संस्कृतका भी ऐसा कोई शब्द विदित नहीं जिससे इसकी व्युत्पत्ति की जा सके। पढ़ते २ हरिपेण रचित "वृहत्कथाकोश" (सिंधी जैन ग्रन्थमाला) में कुटिका शब्द मिला, जिसका अर्थ कन्या है। इस में कथा नं. ३० इस प्रकार प्रारम्भ होती है बलदेवपुर में बलवर्धन राजा था जिसकी कुलवर्धनी रानी थी। उस नगरमें टकदेशका रहनेवाला धनदत्त नामका सेठ निवास करता था। इसकी स्त्री धनदत्ता थी। इनके धनदेवी नाम पुत्री उत्पन्न हुई । इसी नगरमें टक्कदेशका एक और सेठ था जिसका नाम पूर्णभद्र था। इसकी स्त्री पूर्णचन्द्रा थी। उनके घर पूर्णचन्द्र नाम पुत्रने जन्म लिया। एक दिन पूर्णभद्रने धनदत्त को कहा कि आप अपनी पुत्री धनवती का विवाह मेरे पुत्रके साथ कर दीजिये । यह सुनकर धनदत्त बोला कि यदि आप मुझे बहुत सा धन देवें तो मैं आपको लड़की दे दूंगा । धनदत्त की बात सुनकर पूर्णभद्र बोला-आप धन जितना चाहें ले सकते हैं । लड़की शीघ्र दीजिये । ययाचे पूर्णभद्रस्तं धनदत्तं मनोहरीम् । सुताय पूर्णचन्द्राय धनदेवी कलावतीम् ॥७॥ पूर्णभद्रवचः श्रुत्वा धनदत्तो बभाण तम् । यच्छामि कुटिकां तेऽहं यदि देहि धनं बहु ॥८॥ निशम्य धनदत्तोक्तं पूर्णभद्रो जगावमुम् । कुटिकां देहि मे शीघ्रं गृहाण त्वं धनं बहु ॥९॥ [३० मृतकसंसर्गनष्टमाला कथानकम् ] यहां यह बात विशेष ध्यान देने योग्य है कि कोषोंमें टक नाम बाहीक जातिका है। राजतरङ्गिणी (५. १५०) में टक्कदेश का भी उल्लेख है। इससे पंजाबका तात्पर्य है । पंजाब के पर्वत-प्रदेशकी लिपिको आज भी "टाकरी" कहते हैं (टकवासियोंकी भाषामें कुटिका शब्दका प्रयोग उचित ही है। - उपर्युक्त कथन से सिद्ध होता है कि जैन साहित्यका अध्ययन भारतवर्ष की आधुनिक भाषाओंकी व्युत्पत्ति के लिये कितना उपयोगी है। For Private And Personal Use Only
SR No.521625
Book TitleJain_Satyaprakash 1946 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1946
Total Pages36
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy