SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 4
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ २५८ ] चिंतामणिदिट्ठता, समिट्ठसंपायणं सभावाओ ॥ जिणसासणम्मि भावों, पहाणभावेण निधिट्टो सिरिसिद्धचक्कथंभण - केसरिया तित्थना हतितयमिणं ॥ विग्घहरं सिद्धियरं, हरेउ विग्घाइ सवेसिं सुणइ पढेइ सयाजे, सुई तिहा भव्व विग्वहरथुत्तं ॥ अंसाओऽवि न विग्धं, तेर्सि कल्लाणसंपत्ती नहसुण्णजुगक्खिमिए, वरिसे सिरिनेमिनाहजम्मदिणे ॥ सिरिसूरिमंतसरणं, किच्चा सब्बोवसग्गहरं पवरम्मि थंभतित्थे, अहुणा खंभायनामसुपसिद्धे ॥ भव्वजिणालय कलिए, पवरायरियाइजम्मथले तवगच्छंबर दिणथर - जुगवरसिरिने मिसूरिसीसेणं ॥ पउमेणायरिएणं, सुहयं सिरिविग्घहरथुत्तं चउविहसंघहियत्थं, रइयं लच्छीप्पहस्स पढणटुं ॥ भव्वा पढिय पमोया, लहह परमनिव्वुइसुहाई Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २. तुला तु मुख्ययन्त्राणि तिष्ठन्ति किल ताजिके । षड्वर्गशुद्धिमाख्यान्ति लग्ननिश्चयमिच्छताम् ॥७॥ वर्ष ११ ॥१२॥ ॥१३॥ For Private And Personal Use Only ॥१४॥ ॥१५॥ ॥१६॥ ॥१७॥ त्रैलोक्यप्रकाश में "सुर्लाब" ( लेखक - डा. बनारसीदासजी जैन, लाहौर ) लाहौर से इसी वर्ष हेमप्रभसूरि का त्रैलोक्यप्रकाश प्रकाशित हुआ है। इसके संपादककी प्रेरणासे मैंने इसका प्राक्कथन लिखा है । श्लोक नं. ७ का संपादन मुझे संतोषप्रद नहीं जान पड़ा। जब मैंने फुटनोटमें दिये हुए पाठान्तरों पर विचार किया तो मुझे निश्चय हो गया कि यहां तुला तु के स्थान में श्रुलाव, शुर्लाव या सुलब होना चाहिये था । विदित हो कि ' सुर्लाब' शब्द उस्तुर्लब का रूपान्तर है । उस्तुर्लाच एक ज्यौतिषयन्त्र है जिसका प्रयोग यवनों में विशेष रूप से होता था । यह घडियाल के आकारका पीतलका मोटा और गोल टुकड़ा होता है। इसके किनारों पर अंश, कला आदिके निशान लगे होते हैं। इसे लटकाकर इसके द्वारा आकाश में ग्रहों आदिका स्थान निश्चित किया जाता है । ॥१८॥ १. संपादक -रामस्वरूप शर्मा; प्रकाशक- कुशल अस्ट्रोलाजिकल रिसर्च इन्स्टिटयूट; माडल टाउन, लाहौर । फुट नोटमें तुला तु के पाठान्तर - श्रभाव A, शुलाव A1 श्वभाव B, शुभावे Bh श्रीमूलराज जैन ने जून् सन् १९४४ में जैन सत्य प्रकोश (क्रमांक १०५ ) मैलोक्य प्रकाश पर एक नोट छापा था। इस पाठ में उन्होंने भी भूल की है । ३. उस्तुर्ला, सुर्लाब= An astrolabe. F. Steingass. Persian - English Dictionary London 1930.
SR No.521623
Book TitleJain_Satyaprakash 1946 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1946
Total Pages36
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy