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७] निdि -dralals
[२२१ .. 'धर्मो मंगल मिति ' धर्म मंगल है यानी कल्याणकारक है, उत्कृष्ट है यानी सर्वश्रेष्ठ है और वह धर्म अहिंसा संयम तथा तपस्वरूप है। उन्हें देवता भी वन्दना करते हैं जिनके मन हमेशां धर्म में लगे रहते हैं। धर्म के पूर्ण महत्त्व को अच्छी तरह जानने वाले सर्वज्ञ भगवान् ने दशवैकालिक सूत्र में लोगों के कल्याण के निमित्त यह धर्म का लक्षण कहा है।
यहां धर्म को मंगल कहा है और सर्वोत्कृष्ट कहा है तथा अहिंसा संयम और तपोरूप कहा है, तथा धर्म करने वालों को देव भी वन्दना करते हैं ऐसा कहा है, इतने विशेषणों से युक्त कहा है। अर्थात् मोक्षरूप सर्वोत्कृष्ट मंगल देनेवाला धर्म है यह उपर्युक्त वाक्य का तात्पर्यार्थ हुआ और धर्मी को देववन्द्य विशेषण से युक्त कहने से तो धर्म का मोक्ष साधकत्व और सुस्पष्ट हो जाता है, क्योंकि स्वर्गिक सुख से भी मोक्ष सुख कहीं अधिक है इसी लिये देवतालोग भी धर्मवान् को वन्दना करते हैं, अतः इससे भी यही सिद्ध हुआ कि परम पुमर्थ मोक्ष सोधक धर्म है और वह धर्म सम्यग् दर्शन ज्ञान चारित्र स्वरूप है । ____ इस तरह दूरदर्शी सर्वज्ञोंने धर्म का लक्षण गुढाभिप्रायगर्भित सुस्पष्ट पूर्णप्रमाणयुक्त सर्वथा सत्य कहा है। किन्तु सर्वज्ञोक्त धर्मलक्षणकी सामान्य स्पष्ट वातों को देखते हुये भी कितने लोगों ने वास्तविक धर्मलक्षण का मनमौजी अनर्थ कर दिया है, जैसे भ्रमविध्वंसनकार मिक्षुस्वामी के अनुगामी श्रीजीतमलजीने अपने 'भ्रमविध्वंसन' के प्रथमारम्भ में ही लिखा है कि
"भगवान् रो धर्म तो केवली री आज्ञा माही छ । ते धर्म रा २ भेद, संवर, निर्जरा. ए बिहूं मेश में जिन आशा छ। ए संवर निर्जरा बेहूं इधर्म छै । ए संवर निर्जरा टाल अनेरो धर्म नहीं छै । केइ एक पाषण्डी संवर ने धर्म श्रद्धे पिण निर्जरा ने धर्म श्रद्ध नहीं । त्यारे संवर निर्जरारी ओलखणा नहीं। ते संघर निर्जरारा अजाण थका निर्जरा धर्मने उथापवा अनेक कुहेतु लगावे। जिम अनाणवादी पाषण्डो शान ने निषेधे तिम केई पाषण्डी साधु रा वेष माहि साधु रो नाम धरावे छै । अने निर्जरा धर्मने निषेध रह्या छै। अने भगवान तो ठाम २ सूत्र में संयम, तप, ए बिहुं धर्म कह्या छ ।”
-[भ्रम विध्वंसन पृष्ठ. १] ___ भ्रमविध्वंसनकार के उपर्युक्त वाक्यों का तात्पर्यार्थ यह है कि भगवान की आज्ञा ही भगवान् का धर्म है और वह धर्म दो प्रकार का है, प्रथम संवर और दूसरा निर्जरा । इसके अलावा अन्य कोई धर्म नहीं है,इससे अन्यथा धर्म के निरूपण करने वाले अज्ञानी हैं, पाखण्डी हैं, धूर्त हैं इत्यादि । मैं भ्रमविध्वंसनकार और उसके अनुगामियों से पूछता हूं कि आप अपनी अविशेषदर्शिता अल्पज्ञता का सर्वदर्शी सर्वज्ञ के निर्मल वचन पर क्यों दुरुपयोग कर रहे हैं ! क्योंकि भगवान् ने श्रुत और चारित्र अर्थात् सम्यग ज्ञान सम्यग् दर्शन और सम्यक चारित्र को हि धर्म कहा है। आगम (स्थानांग सूत्र) भी यही करता है कि-" दुविहे धम्मे पन्नते संजहा-सुयधम्मे चेव चरित्तधम्मे चेव" किन्तु आपकी राय में संवर और निर्जरा ये ही
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