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શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ
[ वर्ष ११
भाष्य आदि बातोंको माननेके लिये कहा गया है तो उसको माननेमें अपनी खैरियत क्यों नहीं मान लेते ? और भगवतीसूत्रके २५ शतक, ३ उद्देश, १६८२ पृष्ठमें कहा है कि64 तत्थो खलु पढ़मो बीओ निज्जुत्तिमीसओ भणिओ । तइयो य निरवसेसो एस विही होइ अणुओगे ॥
भावार्थ:-प्रथम सूत्रार्थकी लेना, अनन्तर नियुक्ति सहित लेना आर तीसरा निरवशेष (संपूर्ण) लेना, यह विधि अनुयोग (अर्थ) करने की है ।
श्रीभगवतीसूत्रमें टीका, निर्युक्ति आदिको प्रमाण मान्नेका साफ साफ लिखा हुआ है, फिर भी अपनी दुराग्रहतासे ये लोग नहीं मानते हैं । इतना ही नहीं, तेरहपन्थियोंका कहना है कि- " भगवान् महावीरने एक वार गोशालकको जलने से बचाया था, इस लिये महावीर चूक गये ” | बड़े आश्चर्य और खेदकी बात है कि महाज्ञानी भगवान् महावीर चूक गये, और विभीषणभावभाषी भिक्खुजी और जीतमलजीकी विभ्रान्त बुद्धिमें बड़ी चूक भी कोई चूक नहीं ! अस्तु ! हमने इनके प्रत्येक धर्म-प्रतिकूल मन्तव्योंका अपने 'निर्भ्रान्त-तत्वालोक' में यथास्थान समुचित उत्तर दिया है । और मूर्त्ति पूजाके विषयमें " मूर्ति-पूजा-तत्वालोक " नामका एक ट्रेक्ट अलग लिखा है । उक्त दोनों पुस्तकोंसे पाठकोंको मालूम हो जायगा कि सत्य सत्य ही होकर चिरस्थायी होता है, और असत्य असत्य होनेसे क्षणभंगुर या जलका बुलबुला है । तेरह - पन्थी साधुगण अपनेको पवित्र आचरणवाले मानने हैं, मेर ख्यालसे तो यह 'अपने मुह मियां मिठु बनना ' है । जिन्होंने देखा है वे भलभांती जानते हैं कि वहां क्या है ? पर हम इस निन्दित विषयके वक्तव्यमें आगे बढ़ना नहीं चाहते । पर इतना लिखना आवश्यक समझते हैं कि
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क्योंकि, उनके भीतर घुस कर
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तेरह - पन्धी साधुओंका व्याख्यान रातमें होता है, जिसमें स्त्री, पुरुष सभी इकट्ठे होते हैं । रातमें साधुके स्थान पर स्त्रीका जाना शास्त्र में निषिद्ध ( वर्जित ) है ।
तेरहपन्थी पूज्यश्री की सेवा के लिये आठ राजसतियाँ चुनी जातीं हैं, वे पूज्यश्रीको परदेभे भोजन कराती हैं तथा दूसरी सेवायें भी करती हैं । साध्वियोंके द्वारा साधुकी सेवा होना आचरणकी दृष्टिसे कभी अभिनन्दनीय नहीं हो सकता है ।
इसी तरह इनके मार्गकी सेवा और पालन आदि बहुतस बातें शास्त्र और लोककी दृष्टिसे अनुचित हैं । अब हम अपनी लेखनीको विश्राम देकर अन्तमें एकवार प्रत्येक विचार - शील जनता - हितैषी देश - सेवकों और सददृष्टि ज्ञान - चारित्र्य-धारी साधुओं एवं नीतिनिपुण प्रजा - वत्सल सद्धर्मधुरन्धर धराधिपतियोंसे फिर भी अनुरोध करते है कि वे सर्वथा प्रयत्नशील होकर इस धर्मने फैलाए हुए कलङ्क पङ्कको अच्छी तरह धो डालें ।
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तुष्यन्तु सुजना बुध्वा सदर्थान् मदुदीरितान् । अबोधेन हसन्तो मां तोषमेष्यन्ति दुर्जनाः ||
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