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अ २] નિબ્રોન્ત ડિડિમ
[ ५५ नंदीसूत्र आपके ३२ सूत्रों में है, उसी नन्दोसूत्रमें महानिशीथसूत्रका नाम दिया हुआ है, उस महानिशीथसूत्रमें लिखा है कि-"जिनमन्दिर करने वाले वारहवें स्वर्गको जाते हैं।" __अब विचारनेकी बात है कि जो समकीति जीव है वही वैमानिक आयुष्यको बांधता है, इस लिये जिनमन्दिरनिर्माण करानेवाला स्वयं सम्यग्दृष्टि है, ऐसा सिद्ध होता है, अतः इसमें धर्म होनेसे साधुलोग इस बाबतका उपदेश समकिती जीवोंको देते हैं । ___और भी तेरहपन्थियोंका कहना है कि-" स्थानांगके दूसरे ठाणमें दो प्रकारका धर्म कहा है, एक सूत्रधर्म और दूसरा चारित्र्यधर्म । सो प्रतिमा पूजनेमें और मन्दिर करानेमें कौनसा धर्म है?"। उत्तरमें हम पूछते हैं कि-'प्रतिमा-पूजन, मन्दिर बनाना, संघ निकालना आदि धर्मकार्योंको भी आप क्यों नहीं मानते ? जब कि प्रत्येकका प्रमाण प्रत्यक्ष है; देखो:ठाणांगके तीसरे ठानमें पृष्ठ ११७ में लिखा है कि-" जिनप्रतिमाकी तरह साधुको भक्तिको करता हुआ जीव शुभ दीर्घायुष्य कर्मको उपार्जन करता है । पाठ यह है:
" तिहिं ठाणेहिं जीवा सुहदीहायुअत्ताए कम्मं पगरेंति । तं जहा णो पाणे अइवाइत्ता हवई, णो मुसं वइत्ता हवइ, तहात्वं समणं वा वंदित्ता नमंसित्ता सक्कारेत्ता सम्माणेत्ता कल्याणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासेत्ता मनुनेणं पीइकारएणं असणपाणखाइमसाइमेणं पणिलाभेत्ता हवइ इच्चेएहिं तिहिं ठाणेहिं जीवा सुहदीहायुअत्ताए कम्मं पगरेंति"।
- इसका सारांश ऊपर ही दे दिया गया है। इसी तरह और भी तेरहपन्थियोंकाभ्रमात्मक निर्मल कथन है कि-"जिन-प्रतिमाको जिन-समान प्ररूपण करते हो सो ३२ सूत्रों में कहां है ? दिखलाओ। उत्तरमें निवेदन है कि " जिनप्रतिमा जिनसमान है'' इसका पूर्ण प्रमाण 'रायपसेणीसूत्र के १९० पृष्ठमें "धूवं दाउणं जिनवराणं" ऐसा पाठ है। इसका अभिप्राय यह है कि 'जिनवरको धूप देकरके । इसमें मूर्तिको जिनवर कहा है, अतः इसीसे सिद्ध होता है कि-जिनाप्रतिमा जिनसमान है। इसके अतिरिक्त 'ज्ञातासूत्र'के १२५५ ३ पृष्ठमें लिखा है कि-" जेणेव जिणघरे" यहां भी जिनप्रतिमाको जिनघरके समान कहा है। अतः जिनप्रतिमाको जिनसमान कहना आगमसंमत एवं युक्तियुक्त है। इस तरह मूल आगम पाठोंसे ही 'जिनमन्दिरनिर्माण' और 'प्रतिमापूजा' आदिकी सिद्धि हो जाती है और टीका, चूणी, भाष्य, नियुक्ति आदिमें तो इसके परिपुष्टिके प्रमाण दर्जनों भरे पड़े हैं। मगर खेद है कि जहां इनको स्वार्थसिद्धियोंमें बाधा पहुंचती है वहां ये अपना मानी हुई बातों को भी नहीं मानते, अतः ऐसी दुराग्रहताको केवल अविवेकपूर्णता या स्वार्थान्धसाधनता ही कह सकते हैं। कयोंकि तेरह-पन्थी साधु ३२ सूत्रोंको ही मानते हैं और टीका, नियुकि आदिको नहीं। हम पूछते हैं कि 'नन्दीसूत्र' को तो आप मानते हैं, लेकिन उसी 'नंदीसूत्र' में टीका, नियुक्ति,
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